पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६४

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भूमिकालक्षणविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२४५) रहता है, अरु निषेध गुण स्वाभाविक जाते रहते हैं, दंभ गर्व मोह लोभ आदिक तिसके स्वाभाविक नष्ट हो जाते हैं, जैसे सर्प कंचुकीको त्यागिकार शोभायमान होता है, तैसे विचारवान बाह्य इंद्रियोंको त्याग कारकै शोभता है, अरु जो क्रोध भी तिसविषे दृष्ट आता है, तौ क्षणमात्र होता है, हृदयविषे स्थित नहीं हो सकता है, अरु खाना पीना लेना देना जो कछु क्रिया है, सो विचारपूर्वक करता है, अरु सर्वदा शुद्ध मार्गविषे विचरता है, संतजनोंका संग करना अरु सच्छास्त्रों के अर्थ विचारने, बोधको बढावना, तप करना, तीर्थीका स्रान करना इसप्रकार कालको व्यतीत करता है । हे रामजी ! यह दूसरी भूमिका है, जब तीसरी भूमिका आती हैं, तब श्रुति जो हैं वेद अरु स्मृति जो हैं, धर्मशास्त्र जिनके अर्थ हृदयविषे स्थित होते हैं, जैसे कमलपर भंवरा आनि स्थित होता है, तैसे तिस पुरुषके हृदयविषे शुभ गुण स्थित होते हैं, फूलोंकी शय्या भी सुखदाई नहीं भासती, वन अरु कंदरा सुखदायक भासते हैं, जो वैराग्य तिसका दिन दिन बढ़ता जाता है, अरु तलाब बावलियां नदियांविषे स्नान करना अरु शुभस्थानोंविषे रहना, पत्थरकी शिलापर शयन करना, अरु देहको तपकार क्षीण करना, अरु धारणाकारै चित्तको किसी ठौरविष न लगावना, अरु आत्मभावना ध्यान करना, अरु भोगते सर्वदा उपरांत होना, भोगको अंतवंत विचारना, जो यह स्थिर नहीं रहते, अरु देहके अहंकारको उपाधि जानकार त्यागता है, रक्त माँस पुरीषादिकते पूर्ण जानकार उस विषेअहंकारकोत्यागता हैं, अरु निंदा करता हैं, सूखे तृणकी नई तुच्छ जानकार त्यागता है, जैसे तृण विष्ठाकार संयुक्त होवै, अरु तिसको त्यागताहै तैसे देहके अहंकारको त्यागता है. अरुकंदराविषे विचरना, फूलफलका आहारकरना, अरु संतजनोंकी टहल करनी इसप्रकार आयुर्बलको बितावता है, सदा असंग रहता है, वह तीसरी भूमिका है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे प्रथमद्वितीयतृतीयभूमिकालक्षणविचारवर्णनं नाम शताधिकद्वादशः सर्गः ॥ ११२॥