पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६५

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( १२४६ ) योगवासिष्ठ । शताधिकत्रयोदशः सर्गः ११३. तृतीयभूमिकाविचारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह ज्ञानका साधन है, ब्रह्मविद्याको विचारना, वारंवार उसके अर्थकी भावना करनी, अरु पुण्यक्रियाविषे विचारना, इसते इतर ज्ञानका साधन नहीं, इसकरि ज्ञानकी प्राप्ति होती है; जिस पुरुषको ऐसी भावना हुई है, तिसको नानाप्रकारकी सुगंधि अगर चंदन चोएते आदि लेकर अरु अप्सरा अनिच्छित आय प्राप्त होवे, तब तिनका निरादार करता है, अरु जो स्त्रीको देखता है, तो भी मातासमान जानता है, अरु पराए धनको पत्थरबटेके समान देखिकारि वांछा नहीं करता है, अरु सर्व भूतको देखिकार दयाही करता है, जैसे आपको सुखकार प्रसन्न दुःखकर अनिष्ट जानता हैं, तैसे वह अपरको भी आप जानिकार सुख देता है, अरु दुःख किसीको नहीं देता, इस प्रकार पुण्यक्रियाविषेविचरता है, अरु सच्छास्रके अर्थका अभ्यास करता है, सर्वदा असंग रहता है. अरु असंगता भी दो प्रकारकी है॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! असंग संगका लक्षण क्या है, तिनका भेद तौ तुमको होवैगा । वसिष्ठ उवाच ॥ हेरामजी ! असंग दो प्रकारका है, एक समान है, एक विशेष है. तिनका लक्षण श्रवण करु, प्रथम समान यह है, जो वह कहता है, मैं कछु नहीं करता, न मैं किसीको देता हौं, न मेरे ताई कोऊ देता है, सर्व ईश्वरकी आज्ञा वर्तती है, जिसकी धन देनेकी इच्छा होती है तिसको धन देता है, जिससों लेना होता है, तिससों लेता है, इसके अधीन कछु नहीं, अरु जो कछु दान तप यज्ञादि करता है, सो ईश्वरार्पण करता है, अपना अभिमान कछु नहीं करता, अरु कहता है, सब ईश्वरकी शक्तिकार होता है, इसप्रकार निरभिमान होकर धर्मचेष्टाविषे स्वाभाविक विचरता है, अरु जो कछु इंद्रियोंके भोगकी संपदा है, तिसको आपदा जानता है, भोगको महाआपदारूप मानता है। संपदा आपदारूप, संयोग वियोगरूप है, जेते पदार्थ हैं, सो सब संनि