पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६६

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तृतीयभूमिकाविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १२४७) पातरूप हैं, विचारकरि नष्ट हो जाते हैं, सबको नाशरूप जानता है, संयोगवियोगविषे दुःखदाई है; परस्त्रीको विषकी वल्ली समान रसतेरहित जानता है, अरु सर्व पदार्थीको परिणामी जानिकार इच्छा किसीकी नहीं करता है;अरु संपूर्ण विश्वका जो ईश्वर हैं, जिसको सुख देना है, तिसको सुख देता है, जिसको दुःख देना है, तिसको दुःख देता है. इसके हाथ कछु नहीं, करने करानेवाले ईश्वर है, न मैं कर्ता हौं, न मैं भोक्ता हौं, न मैं वक्ता हौं, जो कछु होता है, सो सब ईश्वरकी सत्ता होकार होता है, ऐसे निरभिमान होकर पुण्यक्रियाको करता, सो समान असंग है, तिसके वचन सुनेते श्रवणको अमृतकी प्राप्ति होती है, इसप्रकार संतके मिलनेकरि भूमिकाते जिसकी बुद्धि बढ़ी है, अरु निरंभिमान है, तिसके उपदेशविषे अनुभवकार तबलगअभ्यासकरै, जबलग हाथपर ऑविलेकी नाईं आत्माका अनुभव साक्षात्कार प्रत्यक्ष होवै, अरु यह जो कहा था, ईश्वर सब कता है, सो समान असंगहै, अरु विशेष असंगवाला कहता है, जो न मैं कछु करता हौं, न करावता हौं, केवल आकाशरूप आत्मा हौं, न मेरेविषे करणा हैं, न करावणा है, न कोऊ अपरहै, न मेरा है, केवल आकाशरूप अद्वैत आत्मा हौं ॥ हे रामजी ! वह पुरुष न अंतर न बाहिर देखता है;न पदार्थन अपदार्थ, न जड़, न चेतन, न आकाश नपातालको देखताहै, न देशको, न पृथ्वीको, न मेरेको नतेरेको देखताहै, निर्वास अज अविनाशी सर्व शब्द अर्थीते रहित- केवल शून्य आकाशविषे स्थित है, चित्तते रहित चेतनविषे जो प्रस्थित है, तिसको असंग श्रेष्ठ कहते हैं, बाह्य उसकी चेष्टा दृष्ट भी आती है, तौ भी अंतर पदार्थकी भावनाका अभाव है जैसे जलविषे कमल दृष्टभी आता है, परंतु ऊँचाही रहता है, तैसे क्रियाविषे विचरता दृष्टभी आती हैं,परंतु असंग रहता है, कामना उसको कोऊ नहीं रहती कि, यह होवे, अरु यह न होवे, काहेते कि, उसको संसारका अभाव निश्चय भयाहै, सर्व कलनाते रहित है, आत्माते इतर किसी पदार्थकी सत्ता नहीं फुरती, सो श्रेष्ठ असंग कहाताहै, अरु करणेकार उसका अर्थ कछु सिद्ध नहींहोता अकरणविषे प्रत्यवाय नहीं होता, वह सर्वदा असंगहै, संसारविषे डूबताक