पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६७

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(१२४८) योगवासिष्ठ । दाचित् नहीं, संसारसमुद्रके पारको प्राप्त हुआ हैं, अरु अनात्मविषे आत्मभावना तिस पुरुषने त्यागी है, अहंभावका त्याग किया है, जेते पदार्थ हैं, इष्ट अनिष्टरूप, तिनके सुखदुःखकी वेदना नहीं फुरती, सदा मौनरूप है, ऐसा पत्थरसमानहैं, सो श्रेष्ठ असंग कहाताहै॥ हे रामजी ! एक कमल है, सो अज्ञानरूपी कीचसनिकसिकरिआत्मारूपी जलविषे विराजता है, संसारको अभावना उसका बीज है, अरु तृष्णारूपी उस जलविषे मच्छियां हैं, कमलके चौफेर फिरती हैं, अरु कुकर्म दुःवरूपी तिससाथ काँटे हैं, अज्ञानरूपी रात्रिकरि मुख कुँदि रहता है, अरुविचाररूपी सूर्यके उदय हुएते खिलता है, अरु शोभता हैं, सुगंधि तिसविषे संतोष है, सो हृदय बीच लगता हैं. फल तिसका असंगहै, तीसरीभूमिकाविषे यह ऊगताहै ॥ हेरामजी । संतकी संगति अरु सच्छाखोंका विचारणा सारको प्राप्त करताहै; इनकरिकै अमृत मोक्षको प्राप्त होता है, बड़ा कष्ट है कि ऐसे स्वरूपको विस्मरण कारकै जीव दुःखी होते हैं, इसका स्वरूप दुःखोंका नाश करताहै, जिसविषे दुःख कोऊनहीं आनंदरूपहै इन भूमिकाद्वारा प्राप्त होताहै,बहुरि बंधमान नहीं होता। हेरामजीयिहतीसरी भूमिका ज्ञानके निकटवर्तीहै,अरु विचारवान् इन भूमिकाविषेस्थित होकार बुद्धिको बढावतेहैं, जब इसप्रकारबोधको बढ़ावताहै, अरु शास्त्रयुक्ति साथ रक्षा करताहै, तब क्रमकारिकै यहतीसरीभूमिकाको प्राप्त होताहै,तहाँ इसको असंगता प्राप्त होतीहै, जैसे किसान खेतीकी रक्षा करता है, बढ़ता है, तैसे विचाररूपी जलकरिबुद्धिकोबढ़ावता हैं, जबबुद्धिरूपीवल्ली बढती है, तब चतुर्थ भूमिका प्राप्त होती है, अरु अहंकार मोहादिक शत्रुतेरक्षा - करता है, ॥ हे रामजी इस भूमिकाको प्राप्त होकर यह ज्ञानवान् होता हैं, सो यह भूमिका कर्मकरिकै प्राप्त होती है, अथवा बडे पुण्यकर्म • किये होवें, तिसकार आनि फुरती है, अथवा अकस्मात आनि फुरती है, जैसे नदीके तटपर को आय बैठा होवै, अरु नदीके वेगकरि बीच जाय पड़े, तैसे जब पहिली भूमिका प्राप्त होती है, तब फेरि बुद्धिको बढाता है, जब बुद्धिरूपी वल्ली बढती है, तब ज्ञानरूपी फल लगता है, जब ज्ञान उपजा, तब प्रत्यक्ष क्रिया तिसविषे दृष्ट भी आवै ती भी