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योगवासिष्ठ।

दशमः सर्गः १०.

जीवन्मुक्तिनिश्चयोपदेशवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी। बोधके निमित्त मैं तुझको वारंवार सार कहता हौं, जो आत्मसाक्षात्कार भावना अभ्यासविना न होवैगा, यह जो अज्ञान अविद्या है, सो अनंत जन्मका दृढ भया है, सो अंतर बाहिर करिकै देखाई देता है, आत्मा सर्व इंद्रियते अगोचर है, जब मन सहित षट् इंद्रियका अभाव हो जावै, तब केवल शांतिको प्राप्त होता है॥ हे रामजी। जेती कछु वृत्ति बहिर्मुख फुरती है सो अविद्या है. काहेते कि, आत्मतत्त्वते इतर जानिकरि फुरती है, अरु जो अंतर्मुख आत्माकी ओर फुरती है, सो विद्या है, सो विद्या अविद्याको नाश करैगी अविद्याके दो रूप हैं, एक प्रधान रूप है, एक निकृष्ट रूप है, तिस अविद्याते विद्या उपजिकरि अविद्याको नाश करती है, बहुरि आप भी नाश हो जाती है, जैसे बांसते अग्नि उपजतीहै, अरु बांसको जलायकरि आप भी शांत हो जाती है, तैसे जो अंतर्मुख है, सो प्रधानरूप विद्या है अरु जो बहिर्मुख है, सो अविद्या निकृष्टरूप है ताते अविद्याभागको नाश करहु॥ हे रामजी! अभ्यासविना कछु सिद्ध नहीं होता, जो कछु किसीको प्राप्त होता है, सो अभ्यासरूपी वृक्षका फूल है, चिरकाल जो अविद्याका दृढ़ अभ्यास हुआ है, तब अविद्या दृढ भई है, जब आत्मज्ञानके निमित्त यत्न करिकै दृढ अभ्यास करैगा, तब अविद्या नाश हो जावैगी॥ हे रामजी! हृदयरूपी वृक्ष है, तिससाथ अविद्यारूपी बुरी लता दृढ़ हो रही है, तिसको ज्ञानरूपी खड्ग करिकै काटहु, अरु जो कछु अपना प्रकृति आचार है, तिसको करहु, तब तुझको दुःख कोऊ न होवैगा, जैसे जनक राजा ज्ञातज्ञेय होकरि व्यवहारको करत भया है, तैसे आत्मज्ञानका दृढ अभ्यासकरि तू भी विचर॥ हे रामजी! जैसे पवन निश्चयको धारिकरि कार्याकार्यविषे विचरताहै, अरु जैसे निश्चय विष्णुजीको स्वरूपविषे है, सब कार्य करता है, अरु जैसे निश्चय सदाशिवको जो गौरी अर्धांगमें रहती है अरु कदाचित् क्षोभको नहीं प्राप्त होता,