पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७१

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( १२५२ ) यौगवासिष्ठ । चित्तको स्थिर करौ, तब भ्रम मिटि जावैगा, अरु आत्मतत्वमात्रही शेष रहैगा, सो शुद्ध है, अरु आनंदरूप है, तिसविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्ववासनारूपवर्णनं नाम शताधिकचतुर्दशः सर्गः ॥ ११४ ॥ शताधिकपंचदशः सर्गः ११५. सृष्टिनिर्वाणैकताप्रतिपादनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! पूर्व तुझको प्रवृत्तिवालेका क्रम कहीं है, अब निवृत्तिका क्रम सुन, जिसको भूमिका प्राप्त भई है, अरु आत्मपद नहीं प्राप्त भया, तिसके पाप तौ सर्व दग्ध होजाते हैं, जब उसका शरीर छूटता है, तब वासनाके अनुसार शून्याकार हुआ, बहुरि अपने साथ शरीर देखता है, बहुरि बड़े परलोकको देखता है, तहाँ स्वर्गके सुख भोगता है, विमानपर चढ़ता है, लोकपालके पुरोविषे विचरता है, जहां मंद मंद पवन चलता है, सुंदर वृक्षों की सुगंधि है, पांचों इंद्रियोंके रमणीय विषय हैं,तिन स्थानों विषे विचरताहै,देवता विधे क्रीडा करता है, भोगको भोगिकर संसारषिष उपजता है, बहुरि भूमिका क्रमको प्राप्त होता है, जैसे मार्ग चलता कोऊ सोय जावै, जागिकार बहार चलताहै, तैसे शरीर पायकार बहुरि भूमिकाके क्रमको प्राप्त होताहै, जैसी जैसी भावना दृढ होती है तैसे हो भासता है, यह सब जगत् संकल्पमात्र है, संकल्पके अनुसारही भासता है, वासनाके अनुसार परलोक भ्रम सुख दुःख देखता है, तहाँते भोगिकर बहुरि संसारविषे आनि पड़ता है, इसीप्रकार संकल्पकार भटकता है; जब आत्माकी ओर आता है, तब संसारभ्रम मिटि जाता है, जबलग आत्माकी ओर नहीं आता, तबलग अपने संकल्पकारि संसारको देखता है, जीव जीव प्रति अपनी अपनी सृष्टि भासती है, देवता दैत्य भूमिलोक स्वर्ग सब संकल्पके रचेहुए हैं, जेता कछु संसार भासता है, ब्रह्मा विष्णु रुद्रते आदि लेकार सब जगत् मनोमात्र है, मनके संकल्पते उदय हुआ है, असत्रूप है, जैसे मनोराज्य