पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७३

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(१३५४ ) योगवासिष्ठ । शताधिकषोडशः सर्गः ११६. विश्वाकाशैकताप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह सृष्टिका स्वरूप संकल्पमात्र है,अरुसंकल्प भी आकाशरूप हैं, आकाश अरु स्वर्गविषे कछु भेद नहीं, जैसे पवन अरु पदविषे भेद नहीं, कैसी सृष्टि है, जो अनेक पदार्थ हैं परंतु परस्पर रोकती नहीं, अरु वास्तवते विश्व भी आत्माका चमत्कार हैं, अरु आत्मरूप है, जो आत्मरूप है, तौ राग किसविषे करिये, अरुद्वेष किसविषे करिये, चेतन धातुविषे कोटि ब्रह्मांड स्थित हैं, अरु यह आश्चर्य हैं, जो आत्माते इतर हुआ कछु नहीं अरु भिन्नभिन्न संवेदनदृष्ट आती है, अरु नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं ॥ हे रामजी ! जीव जीव प्रति अपनी अपनी सृष्टि है, एक सृष्टि ऐसी है कि, तिनका संकल्प एक दृष्ट आता है, परंतु सृष्टि अपनीअपनी है, अरु एक ऐसी है जोभिन्नभिन्न है परंतु समानताकारकै एकही दृष्ट आती है, जैसे जलकी बूंदें इकट्ठी होती हैं, जैसे धूड़के कणके भिन्न भिन्न होते हैं, परंतु एकही धूड़ भासती है, जैसे नदीविषे नदी पड़ती है, तौ एकही जल हो जाता है, तैसे समान अधिकरणकरिके एकही भासते हैं, एक एकके साथ मिलते हैं,अरुनहीं भी मिलते, जैसे क्षीरसमुद्रविषे घृत डारिये तो नहीं मिलता, तैसे एक संकल्प ऐसे हैं, जो अपर साथ नहीं मिलते, जैसे एक सूर्यको प्रकाश होवै, अरु एक दीपकका प्रकाश होवे, अरु एक मणिका प्रकाश होवे, तब वहां भिन्न भिन्न दृष्ट आते हैं, अरु एक जैसे होते हैं, तैसे कई सृष्टि एकही भासती हैं, अरु भिन्न भिन्न होती हैं, अरु कई इकट्ठी होती हैं, अरु भिन्न भिन्न दृष्ट आती हैं ॥ हे रामजी ! एती सृष्टि जो मैंने तेरे ताई कही है, सो सब अधिष्ठानविषे फुरणेकारकै कई कोटि उत्पन्न होती हैं; अरु कई कोटि लीन हो जाती हैं। जैसे जलविषे तरंग बुदे उपजिकारे लीन हो जाते हैं, तैसे सृष्टि उत्पन्न अरु लीन होती है, अधिष्ठान ज्योंका त्यों है; काहेते कि तिसते इतर कछु नहीं, अरु ब्रह्म आत्मा आदिक जो सर्व हैं, सोभी ऊरणेविषे