पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७५

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( १२५६) योगवासिष्ठ । विषे ज्ञानवान् पुरुष सम है, अरु देशों दिशा आकाश जल अग्नि आदिक पदार्थ तिसकों सर्व आत्माही दृष्ट आता है आत्माते इतर कछु नहीं भासता, सूर्य चंद्रमा तारे सर्व आत्मा हैं, यह विश्व आकाशरूप हैं, अरु शुद्ध निर्मल है, आकाशविषे आकाश स्थित है, इतर कछु नहीं अरु जो तेरे ताई इतर भासै सो मिथ्या जान, भ्रमकरिकै सिद्ध हुआ है, सत् कछु नहीं, अरु जो परमार्थकार देखै तो सर्व आत्मा है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरण विश्वाकाशैकताप्रतिपादनं नाम शताधिकषोडशः सर्गः ॥ ११६ ॥ शताधिकसप्तदशः सर्गः ११७, विश्वविलयवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ है रामजी । यह विश्व स्वमसमान है, जैसे स्वप्नकी सैन्य नानाप्रकार दीखती है,शस्त्र चलते हैं,इत्यादिक भासते हैं, अरु आत्माविषे इनका रूप देखना, अरु मानना, शब्द अर्थ को नहीं जगतते रहित है, अरु जगतरूप भान होता है,अहं त्वं मेरातेराजेताकछु भासता है, सो सब स्वप्नवत है, भ्रमकारकै सिद्ध हुआ है,सर्वका अधिछान हैं,सो सत्य है,सर्व तिसीविषे कल्पित है,अरुजो अनुभवकार देखिये तौ सर्व आत्मस्वरूप है,इतर देखिये तो कछु नहीं, जैसेस्वप्नके देशकाल पदार्थ सब अर्थाकार भासते हैं, तौभी मिथ्याहैं, तैसे यहविश्व भ्रमकारकै फुरता है, उनकी अपेक्षाकार वह तू है, उसकी अपेक्षाकार वह अहे हैं, वास्तवते दोनों नहीं, जो है सो आत्माही है। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा जो त्वं आदिक अहंपर्यंत अरु अहं आदिक त्वं पर्यंत सर्व स्वप्नसैन्यकी नाईं मिथ्या है, अरु अनुभवकार देखिये तो आत्मस्वरूप है, हम स्व सैन्यविषे हैं, अथवा हमारा अहं आत्मा है, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो अनात्म देहादिकविषे अहंभावना करनी मैं हौं तौ स्वप्नसैन्यके तुल्य है, अरु जो अधिष्ठान चिन्मात्रविषे दृश्यते अरु अहंकारते रहित अहंभावना करनी सो आत्मरूप है ॥