पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७६

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विश्वविलयवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२५७ ) हे रामजी ! तू आत्मरूप है, अरु यह विश्व सत् भी नहीं, असत् भी नहीं, जो अधिष्ठानरूपकार देखिये तो आत्मरूप है, अरु जो अधिष्ठानते रहित देखियेतौ मिथ्या है, सो अधिष्ठान शुद्ध है, आनंदरूप है, चित्तते रहित चिन्मात्र परम ब्रह्म है, तिसविषे अज्ञानकार दृश्य दीखती है, जैसे असम्थकूदृष्टिकारिकै सीपीविषे रूपा भासता है, तैसे आत्माविषे अज्ञानी दृश्य कल्पते हैं । हे रामजी। दृश्य अविचारते सिद्ध है, विचार कियेते कछु वस्तु नहीं होती, जिसके आश्रय कल्पित है, सो अधिष्ठान सत्य है, जैसे सीपीके जानेते रूपेकी बुद्धि जाती रहती है, तैसे आत्मविचारते विश्वबुद्धि जाती रहती है, जैसे समुद्रविष पवनकारि चक्र तरंग फुरतेहैं, अरु प्रत्यक्ष भासतेहैं, विचार कियेते चक्रविषेभी जुलबुद्धिहोतीहै, तैसेआत्मरूपी समुद्रविषे मनकेफुरणेकरि विश्वरूपी चक्र उठते हैं,विचार कियेते तुझको मनके फुरणेविषे भी आत्मरूप भासैगा, विश्वरूपी चक्र न भासँगै, भ्रम निवृत्त होजावैगा, जो वस्तु फुरणेविषे उपजी है, सो अफ़रकारकै निवृत्त होजाती है, यह विश्व अज्ञानकर उपजा है, अरु ज्ञानकारकै लीन हो जावैगा, ताते विश्व भ्रममात्र जान ॥राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा जो ब्रह्मा रुद्र आदि अरु उत्पत्ति संहार करनेपर्यंत सब विश्व भ्रममात्र है, ऐसे जाननेकार क्या सिद्ध होता है, यह तौ प्रत्यक्ष दुःखदायक भासती है। यों दीखती है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी !जो कछु तु देखताहै,सो सर्व आत्मरूप है इतर कछु नहीं, सम्यग्दृष्टिकारकै; अरु असम्यग्दृष्टिकारकै विश्व है, तौ दृष्टिका भेद है, सम्यग् असम्यग् देखने का अधिष्ठान ज्योंका त्यों हैं, जैसे एक जेवरी पड़ी होवै, अंधकारकी उपाधिकर सर्प हो भासे, अरु भयदायक होवै, जो प्रकाशकारि देखिये तौ जेवरीही भासती है, तैसे जिसने आत्माको जाना है, तिसको दृश्य भी आत्मरूप है, अज्ञानीको विश्व भासता है, अरु दुःख पाता है, जैसे मूर्ख बालक अपनी परछाईंविषे वैताल कल्पिकार भयमान होता है, अपने न जाननेकार दुःख पाता है. जो जानै तौ भय किसनिमित्त पावै ॥ हे रामजी । अपनेही संकल्पकार आप बंधायमान होता है, जैसे घुराण कीट अपने बैठनेका स्थान बनाती है, और आपही फैंस मरती है,