पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७८

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विश्वप्रमाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२५९ ) ब्रह्म नहीं, अरु जिसको ब्रह्मभावना हुई है, तिसको ब्रह्मही भासताहै ।। हेरामजी ! जो पाताल जावें, अथवा संपूर्ण पृथ्वी फिरें, दशो दिशा फिरें। आकाशविषे देवताके स्थान फिरें तोऊ सुखको न पावैगा, अरु आत्माका दर्शन न होवैगा, काहेते कि, अनात्माविषे अहंकार कियेते सुख नहीं, अरु जो आत्मदर्शी होकार देखें तौ सर्व आत्माही भासेगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्वविलयो नाम शताधिकसप्तदशः सर्गः ११७ शताधिकअष्टादशः सर्गः ११८. विश्वप्रमाणवर्णनम् ।। | वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । यह संसार संकल्पमात्र है, अरु तुच्छ है, पर्वत नदियाँ देश काल सर्व भ्रमकार सिद्ध हैं, जैसे स्वप्नविषे पर्वत नदियां देश काल भासते हैं, निद्रादोषकारकै अरु हुआ कछु नहीं, तैसे अज्ञान निद्राकार यह संसार भासता है । हे रामजी 1 जागकर देखें तौ संसार है नहीं, इसका तरणा महासुगम है, अरु सुमेरु पर्वतादिक जो भासते हैं, सो कमलकी नाई कोमल हैं, जैसे कमलके मॅदनेविषे यत्न कछु नहीं, तैसे-यह कोमल निवृत्त होते हैं, अरु आकार जो भासते हैं, भूतप्राणी, सो उनकी स्थूलदृष्टि हैं, आकारको देख रहे हैं, जैसे पवनका चलना जाना जाता है, अरु जब चलनेते रहित होता है, तब मूर्खकी गम नहीं, जो निराकारको जानै, तैसे भूतप्राणी आकारको जानते हैं, इसविषे जो निराकार स्थित हैं, तिसको नहीं जानते, जैसे पवन चलताहै, तो भी पवन हैं, जो ठहरता है, तो भी पवन है तैसे विश्व फुरती है, सो भी आत्मा हैं, अफुरविषे भी वही है, ताते विश्व भी आत्मरूप है, इतर कछु नहीं, जो सम्यग्दर्शी है, तिसको ऊरणे अफुरणेविषे आत्माही भासताहै, जैसे स्पंद निस्पंदुरूप पवनही है, तैसे ज्ञानीको सर्वदा एकरस है, अरु अज्ञानीको द्वैत भासता हैं, जैसे वृक्षविषे पिशाचबुद्धि बालक करता है, तैसे आत्माविषे जगत्बुद्धि अज्ञानी करता है, जैसे नेत्रदोषकार आकाशविपे तरुवरे भासते हैं, तैसे मनके ऊरणेकरि जगत् भासता हैं ॥ हे रामजी ! जैसे वायुका रूप -कदाचितु