पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७९

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(१२६०) योगवासिष्ठ । नहीं, तैसे जगत्का रूप अत्यंत अभाव है, जैसे मरुस्थलविणे जलका अभाव है, तैसे आत्माविषे जगत्का अभाव है । हे रामजी ! सुमेरुपर्वत, आकाश, पाताल, देवता, यक्ष, राक्षस इत्यादिक ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड इकठेकार विचाररूपी कांटेविषे पाए, अरु पाछे अर्धरति पाई तौ भी पूरी नहीं होती, काहेते जो है नहीं, अविचारसिद्ध हैं, स्वपके पर्वत जागे हुए चावल प्रमाण नहीं रहते, काहेते जो है नहीं, भ्रममात्र है । हे रामजी । इस संसारकी भावना मूर्ख करते हैं ऐसे जो अनात्मदर्शी पुरुष हैं, तिनको ऐसे जान, जैसे लुहारकी खालोंते पवन निकसता है, तैसे तिन पुरुषके श्वास वृथा आते जाते हैं, जैसे आकाश विषे अँधेरी व्यर्थ उठती है, तैसे तिन पुरुषका जीवना अरु चेष्टा सर्व व्यर्थ है, अरु यह आत्मघाती हैं, अपना आप नाश करते हैं, उनकी चेष्टा दुःखके निमित्त है। हे. रामजी । यह अपने अधीन है, जो दृश्यकी ओर होता है, तो संसार होता है, अरु जो अंतर्मुख होता है, तो सर्व आत्माही होता है, अरु यह संसार मिथ्या है, न सत् कहिये, न असत् कहिये, भ्रममात्रकार हुआ है, पूर्वकाल, भविष्यकाल, वर्तमानकालविषे बंध होता है, अरु अग्नि शीतल होवै,अरु आकाश पातालविषे होवे, अरु पाताल आकाशविषे होता है, अरु तारे पृथ्वीऊपर हैं, पृथ्वी आकाशऊपर भी होती है, अरु बादर विना मेच वर्षा करता है, ऐसे कौतुक मैं देखताहौं, आकाशविषे हल फिरते देखताहौं । हे रामजी! इसविषे आश्चर्य कछु नहीं,मनकारकै सब कछु होताहै,जैसा मनोराज्य किया तैसा आगे स्थितहोताहै,अरु सिद्ध होता है, पर्वत पुरविषे भिक्षुककी नाईं भिक्षा माँगते फिरतेहैं, अरु ब्रह्मांड उड़ते फिरते हैं, बालूते तेल निकसता है, अरु मृतक युद्ध करते हैं, मृग गाते हैं, अरु वन नृत्य करते हैं । हे रामजी | मनोराज्यकारकै सब कछु बनता है, चंद्रमाकी किरणोंसाथ पर्वत भस्म होते भी मानते हैं, इसविषे क्या आश्चर्य है, तैसे यह संसार भी मनोराज्य है, अरु तीव्र संवेग है, ताते इसको सत् मानता है, अरु आगे जो बालूते तैलादिक कहै,तिनको सतु नहीं जानता काहेते जो उसविषे मृदु है;अरु हैं दोनों ल्य ।। है रामजी ! जि को सत् अरु असत कहते हैं, सो आत्माविर्षे