पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३८१

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(१२६२) यौगवासिष्ठ । शताधिकैकोनविंशतितमः सर्गः ११९ जाग्रत्-अभावप्रतिपादनम् । -राम उवाच ॥ हे भगवन् ! भूमिकाको प्रसंग यहाँ चला था, तिसविषे जो सार तुमने कहा सो मैं जाना, अब भूमिकाका विस्तार कहाँ, अरु योगीका शरीर जब छूटता हैं, अरु स्वर्गके भोगको भोगकार गिरता है, तब फिर उसकी क्या अवस्था होती है, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जिस योगीको भोगकी वांछा होती है, तब स्वर्गको प्राप्त होता है, अरु भोगको भोगता है, जब उसको अपर भी भोगनेकी इच्छा होती है तब पवित्र स्थान अरु धनवान्के गृहविषे आय जन्म लेता है, मध्य मंडल मनुष्यलोकविषे प्राप्त होता है, जो भोगकी वांछा तिनको अपर नहीं होती, तौ ज्ञानवान्के गृहविषे जन्म लेता है, केतेकाल उपरांत तिसकों पिछला संस्कार आय फुरता है, तिसका स्मरण करके आत्माकी ओर आगे होता जाता है, जैसे कोङ पुरुष लिखता हुआ सोय जाता है, जब जागता हैं तब उस लिखेको देखिकरि बहुरि आगे लिखता है, तैसे वह योगी पूर्वके अभ्यासको पायकार दिन दिन बढावता जाता है, अरु अज्ञानका संग नहीं करता, जो भोगके सन्मुख है, अरु आत्ममार्गते बहिर्मुख है, अरु जो चुगली करनेवाले तिनका संग नहीं करता, सर्व अवगुण तिसको त्याग जाते हैं, दंभ गर्व अरु राग द्वेष भोगकी तृष्णा यह स्वाभाविक तिसके छूट जाते हैं, अरु शाँतिको प्राप्त होता है, कोमलता याते आदि शुभ गुण तिसको स्वाभाविक आय प्राप्त होते हैं । हे रामजी ! इस निश्चयको पायकार वर्ण आश्रमके धर्म यथाशास्त्र करता हुआ संसारसमुद्रके पारको निकट जाय प्राप्त होता है, पार नहीं भया, यह भेद है सो तीसरी भूमिका है, , बहुरि मोहको नहीं प्राप्त होता, जैसे चंद्रमाकी किरणें कदाचित तप्तको नहीं प्राप्त होतीं तैसे तीसरी भूमिकावाला संसाररूपी गर्तविषे नहीं गिरता ॥ हे रामजी ! यह सप्त भूमिका ब्रह्मरूप हैं, एताही भेद है जो -