पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३८३

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योगवासिष्ठ।

जैसे तिलोंविषे तेल है, अरु मिरचविषे तीक्ष्णता है, तैसे आत्माविषे जगत है, जैसे तिलोंविषे तेल होता है, तैसे ब्रह्मविषे जगत् कहूं सत्, कहूँ असत्, कहूँ जड, कहूँ चेतन, कहूँ शुभ, कहूँ अशुभ, कहूँ नरक, कहूँ मृतक, कहूँ जीवित, ब्रह्माआदि काष्टपर्यंत भाव अभावरूप होता है, सो सत् असत्ते विलक्षण है, आत्मसत्ताते सर्व सत्य है; अरु भिन्नकार देखिये तो असत्य है ॥ हे रामजी ! जिनको सत्य असत्य जानता है, जो पृथ्वी आदिक पदार्थ सत्य भासता है, अरु आकाशके फूलादिक असत्य भासते हैं, सो दोनों तुल्य हैं, जो विद्यमान पदार्थ सत्य मानिये तौ आकाशके फूल भी सत् मानिये, जैसे स्वप्नविषे कई पदार्थ सत् भासते हैं, कई असत् भासते हैं, तैसे जाग्रतविषे भासते हैं, फुरणा दोनोंका समान है; जैसे सत्य पदार्थोंका फुरणा हुआ तैसा असत्का फुरणा हुआ; फुरणेते रहित सत् असत् दोनों का अभाव हो जाता है, ताते यह विश्व भ्रमकरिकै सिद्ध हुआ है, जैसे जलविषे पवनकरिकै चक्र आवर्त उठते हैं, तैसे आत्माविषे फुरणे कारकै संसार भासता है, इसकी भावना त्यागिकार स्वरूपविषे स्थित होहु, अरु पाछे तुमने प्रश्न किया कि, एक मुहूर्तविषे युग कैसे भासताहै, तिसका उत्तर सुन, जैसे किसी पुरुषको स्वम आता है, तो एक क्षणविषे बड़ा काल बीता भासता है, अपरका अपर भासता है, आश्चर्य तौ कछु नहीं, मोहते सब कछु उत्पन्न होता है, भ्रमकारकै दृष्ट आता है ॥ हे। रामजी ! पुरुष सोया है, तो एक आपही होता है, तिसविषे नाना प्रकारका जगत् भ्रमकारकै भासता है, तैसे स्वरूपके प्रमाद कार कई भ्रम देखता है, स्वरूपके जाननेविना भ्रमका अंत नहीं होता, ताते तू अपर . प्रश्न किसनिमित्त करता है, एक चित्तको स्थिर कार देख, न कोऊ संसार भासेगा, न कोऊ जन्म मृत्यु भासैगा, न कोऊ बध मोक्ष भासँगा, केवल आत्माही भासैगा, जब संकल्प फुरता है, तब आपको बंध जानता है, संकल्पते रहित मुक्त जानता है, सो अविद्याकरि बंध जानता है, विद्याकरि मुक्त जानता है, अरु आत्मस्वरूप ज्योंका त्यों हैं, न बंध हैं, न मुक्त है, न विद्या है, न अविद्या है, केवल शाँतरूप है, ताते