पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३८५

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(१२६६) योगवासिष्ठ । आश्रित फुरती हैं, अरु ब्रह्म एकस्वरूप है, तिसका स्वभाव ऐसे हैं, जैसे मोरका अंडा अरु तिसका वीर्य एकरूप है, अपने स्वभावकारिकै वीर्यही नानप्रकारके रंगको धारता है, तो भी मोरते इतर कछु नहीं, तैसे आत्माके संवेदन स्वभावकारिकै नानाप्रकारका विश्व भासता है, परंतु आत्माते । इतर कछु नहीं, आत्मरूप है, सुम्यङ्दशीको नानाप्रकारविषे एक आत्माही भासता है, अरु अज्ञानीको नानाप्रकारका जगत् भासता है। हे रामजी ! ब्रह्मरूपी एक शिला है, जिसविष त्रिलोकी अनेक पुतलियां कल्पित हैं, जैसे एक शिलाविषे खुरपी पुतलियां कल्पता है, जो इसविषे एती चुतलियां हैं, तो उसके चित्तविषे हैं, जो शिलाविषे हुआ कछु नहीं, तैले आत्मरूपी शिलाविषे चित्तरूपी खुरपी नानाप्रकारके पदार्थरूपी पुतलियाँ कल्पता है सो सर्व आत्मरूप है, ताते पदार्थकी भावना । त्यागकर आत्माविषे स्थित होहु, अरु यह संसार भी निर्वाच्य है, काहेते कि, ब्रह्मही है ब्रह्मते इतर कछु नहीं, न कोऊ उपजता है न को विनशता है, कदाचिद भी ज्योंका त्यों आत्माही स्थित है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जगतअभावप्रतिपादनवर्णनं नाम शताथिकेकोनविंशतितमः सर्गः ॥ ११९ ॥ शताधिकविंशतितमः सर्गः १२०. पिंडनिर्णयवर्णनम् । | राम उवाच ॥ हे भगवन् ! इस संसारका बीज अहंकार हुआ, इसका रिता अहंकार हैं, तो मिथ्या संसार अविद्यमान जो विद्यमान भासता है, सो भ्रमरूप हुआ, जो अमरूप है, तो लोक शास्त्र श्रुति स्मृति कहते हैं कि, इसका शरीर पिंडकरके होता है, जो पिंडकार होता है, तो तुम कैसे अँम कहते हौ, अरु जो ब्रह्म है, तौ लोक शास्त्र श्रुति स्मृति क्यों पिंडकरि कहते हैं, इस मेरे संशयको निवृत्त करौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मेरा कहना सच है, तैसेही हैं, अरु ब्रह्मविषे ब्रह्मतत्त्व स्वभाव