पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

पिंडनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२६७) है, अरु जगविषे जगत्का लक्षण भी वही है । हे रामजी ! आदि जो किंचन हुआ है, चित्तशक्ति ऊरी हैं। सो ब्रह्मरूप हुआ है, तिसविर्षे पदार्थका मनोराज्य हुआ हैं, यह आकाश है, यह पवन आदि है, यह कर्तव्य है, यह अकर्तव्य है, यह सत्य है, यह झूठ है, इत्यादिकार जबलग मनोराज्य है तबलग सर्व मर्यादा ऐसेही है, बार ब्रह्मविषे ऐसे हुआ जो जगतकी मर्यादाके निमित्त वेद कहता है, कि यह पदार्थ शुभ हैं, यह अशुभ है । हे रामजी ! आत्माविषे द्वैत कछु नहीं, मायारूप जगविषे मर्यादा है, जो न होवै, तौ अधः, ऊवं, नीच, ऊंच कौन कहै, यह मर्यादा भी वेदविषे नेति निश्चय हुआ है, जो यह शुभ कर्म हैं, इनके कियेते स्वर्गसुख भोगते हैं, अरु यह अशुभ कर्म हैं, इनके कियेते नरकदुःख भोगते हैं ॥ हे रामजी ! जैसे वेदविषे निश्चय किया है, तैसे यह पुरुष अपनी वासनाके अनुसार भोगता है ॥ हे रामजी ! यह चित्रशक्ति नेति होकर ब्रह्मादिकविषे फुरी है, परंतु उनको सदा स्वरूपविषे निश्चय है, ताते वह बंधायमान नहीं होते, अरु ब्रह्मा विष्णुरुदने यह वेदमाला धारी है, कि जैसा कोऊ कर्म करे, तैसा फल देते हैं, यह वेद् सर्वकी नेति हैं ।। हे रामजी ! जिन पुरुषोंको संसारकी सत्यता दृढ भई है, सो जैसा कर्म शुभ अथवा अशुभ करते हैं, तैसे शरीरको धारते हैं, इसविषे संशय नहीं जो शास्त्रमर्यादाते उलंधित वर्त्तते हैं, अपनी इच्छाकर सो शरीर त्यागिकार को काल मूच्छित हो जाते हैं, मुहूर्तविषे जागिकरिआत्मज्ञान विना बड़ेनरकों को चले जाते हैं, अरु जिनको शून्यभावना भई है कि, आगे नरक स्वर्ग कोऊ नहीं, लोकपरलोकके भयको त्यागिकार शास्त्रबाह्य वर्तते हैं, तो मरकर पत्थर वृक्षादिक जड योनिको पाते हैं, चिरकालते उनकी वासना परिणमती है, फेरि दुःखभागी होते हैं, अरु जिनको आत्मभावना हुई है, संसारकी भावना निवृत्त भई है तौशास्त्रविहित करें, अथवा अविहित करें, तिनको बंधन कोऊ नहीं ॥ हे रामजी ! चित्तरूपी भूमि है, इसविषे निश्चयरूपी जैसा बीज बोता है, तैसाही कालकार उगता हैं, यह निःसंशय है, ताते तुम आत्मभावनारूपी बीज बोवो, और सर्वं ।