पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३८८

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बृहस्पतिवलिसंवादवर्णन-निर्वाणकरण ६. (१२६९) एक नगरकी नाई ले लिया था, देवता किंनरपर तिसकी आज्ञा चली, अरु भूलोक भी लिया, जब सबको ले रहा, तब धर्म आचारको ग्रहण किया, जैसे धर्मात्माका आचार है सो ग्रहण किया, एक समय सर्व सभा बैठी थी, अरु यह कथा चली, कि जन्म कैसे होता है, अरु मृत्यु कैसे होता है, तब राजा बलि बृहस्पति देवगुरुसों प्रश्न करत भया । ब्राह्मण ! यह पुरुष जब मृतक होता है, तब शरीर तौ भस्म हो जाता हैं, बहुरि कमौंके फल कैसे भोगता है, अरु शरीरविना आता जाता कैसे है, सो कहौ । बृहस्पतिरुवाच ॥ हे राजन् ! इस जीवको देह है। नहीं, जैसे मरुस्थलविर्षे जल भासता है, अरु है नहीं तैसे इस साथ शरीर भासता है, अरु है नहीं, यह जीव न जन्मता है, न मरता है, न भस्म होता है, न जलिके दुःखी होता है, तत्त्वते तत्त्व यह सदा अच्युत रूप है, स्वरूपके प्रमादृते आपको दुःखी जानता है, कि मैं इनको भोगता हौं अरु जन्मा हौं, एता काल हुआ है, यह मेरी माता हैं, यह पिता हैं, मैं इनते उपजा हौं, बहुरि आपको मृतक हुआ जानता है ॥ हे राजन् ! भ्रमकरि ऐसे देखता है, जैसे निद्रा भ्रमकारि स्वप्नविषे देखताहै, तैसे अज्ञानकारकै यह जीव आपको मानता है, जब मृतक होता है, तब जानता है कि मेरा शरीर पिंडकार हुआ है, अब मैं दुःख सुखको भोगौंगा, जैसे स्वप्नविषे आकाश होता है, तहाँ वासनाकर अपनेसाथ शरीर देखता है, अरु सुखदुःखको भोगता है, तैसे मारकर अपनेसाथ शरीर देखता है; अरु दुःखसुखका भागी होता है, अरू परमार्थते इसके साथ शरीरही नहीं, तौ जन्म मृत्यु कैसे होवै, स्वरूपते प्रमादकार देहधारीकी नई स्थित हुआ है; तिस देहसाथ मिलकार जैसी जैसी भावना करता है, तैसाही फल भोगता है, वासनाके अनुसार जैसी इसको भावना होती है, तैसा आगे शरीर देखता है, अरु पांचभौतिक संसारको देखता है, इसप्रकार भ्रमता है, अरु जन्मता भरता आपको देखता है, जैसे समुदते तरंग उठता है, अरू मिटि जाता है, तैसे शरीर उपजता है अरु नष्ट होता है, शरीरके संबंधकर उपजता अरु विनशता भासता है, यह आश्चर्य है, जो आत्मा ज्योंका त्यों स्व