पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३८९

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(१२७० ) योगवासिष्ठ भावकारि स्थित हैं; तिसविर्षे वासनाके अनुसार विश्वको देखता है ॥ है राजन् ! विश्व इसके अंतर स्थित है, भावनाके अनुसार आगे देखता है, इस जीवविषे विश्व है, अरु विश्वविषे जीव नहीं, जैसे तिलविषे तेल हैं, अरु तेलविषे तिल नहीं, जैसे स्वर्णविषे भूषण कल्पित है, भूषणविषे स्वर्ण कल्पित नहीं, तैसे जीवविष विश्व कल्पित हैं, इसके अश्रिय फुरती है, सो विश्व सत भी नहीं, अरु असत् भी नहीं, सत् इस कारण नहीं, जो चलरूप है, स्थित नहीं, अरु असत् इसते नहीं, जो विद्यमान भासती है, ताते इसकी भावना त्याग, यह दृश्य मिथ्या है, इसका अनुभव मिथ्या है, अरु इसको जाननेवाला अहंकार जीव भी मिथ्या है, जैसे मरुस्थलविषे जल मिथ्या है, तैसे आत्माविषे अहंकार जीव मिथ्या है । हे रामजी । जलग शास्त्रके अर्थविषेचपलता है, अरु स्थितिते रहित है, तबलग संसारकी निवृत्ति नहीं होती, जब दृश्यके औरणे अरु अहंकारते जड़ हो जावै, तब इसको आत्मपदकी प्राप्ति होवै, जबलग दृश्यक ओर फुरता है; चेतन सावधान है, तबलग संसारविषे भ्रमता है । हे राजन् ! आमा न कहें जाता हैं, न आता है, न जन्मताहै, न मरताहै, जब चैत्य अरु चित्तका संबंध सिटि जावै, तब आनंदरूपही है, चैत्य कहिये दृश्य अरु चित्त कहिये अहंकार, संवित्. जब दोनोंका संबंध आपसमें मिटि जावैगा, तब शेष आत्माही रहेगा, सो ब्रह्म है, आत्मा है, अरु शिवपद है, जिसविषे वाणीकी गम नहीं, सोई शेष रहैगा, सो अनुभव निर्वाच्य पदहे, तिसविषे स्थित होहु ॥ हे रामजी ! जिस युक्तिकार इसकी इच्छा अनिच्छा निवृत्त होवै, सो युक्ति श्रेष्ठ है, जबलग इमको कुरणा उठता है कि यह भाव है, यह अभाव है, तबलग इसको जीव कहते हैं, जब भावअभावका कुरणा मिटि जावै, तब जीवसंज्ञा भी चलती रहै, तब शिवपद् आत्माको प्राप्त होवे, तहां वाणीकी गम नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे बृहस्पतिबलिसंवादवर्णने नाम शताधिकैकविंशतितमः सर्गः ॥ १२१ ॥