पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९२

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चित्तभावप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२७३) शताधिकत्रयोविंशतितमः सर्गः १२३. चित्तभावप्रतिपादनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हेरामजी 1 भावै जीवता होवे, भावै मृतक होवे, जो कछु इसके चित्तसाथ स्पर्श हुआ होवैगा, तिसका अनुभव अवश्य करैगा,जैसे मोरके अंडेविषे रस होता है, वह समयकरि विस्तारको पाता है, तैसे इसके अंतर जोवासनाका बीज है, जो वह प्रगट नहीं भासता तौ भी समयकारे विस्तारवान होता है जबलग चित्त है तबलग संसार है, जब चित्त नष्ट होवे, तब सब भ्रम मिटि जावै ।। हे रामजी ! सो चित्त भी असत् है, तौ विश्व भी असर है, जैसे आकाशविषे नीलता भ्रमकार भासती है, तैसे आत्माविषे विश्व भ्रम है । हे रामजी ! हमको न चित्त भासता है, न विश्व भासता है, मैं भी आकाश हौं, तू भी आकाशरूप है, यह चित्त स्वरूप प्रमाकरिकै उपजता है, जैसे जहाँ काजल होता है, तहां श्यामता होती है, तैसे जहां चित्त होता है, तहां वासना होती है, जब ज्ञानरूपी अग्निकार वासना दग्ध होवै, तब चित्त सत्पदृको प्राप्त होता है, अरु जीवितसंज्ञा निवृत्त होती है । हे रामजी । चित्तके उपशमका उपाय सुझते श्रवण करु, तिसकार चित्त निर्वाण हो जावैगा, जो सप्त भूमिका ज्ञानकी हैं, तिनकरि चित्त नष्ट हो जावैगा, तिनविषे तीन भूमिका तेरे तांई कही हैं, क्रमकारकै अरु चार कहनी रही हैं ॥ हे रामजी ! प्रथम तीन भूमिकाविषे जिसको एक भी प्राप्त भई है, तिसको महापुरुष जान, सो संसारते कैसा हो जाता है, सो श्रवण करु, मान मोह तिसके निवृत्त हो जाते हैं, अरु संगदोष तिसको नहीं लगता, अरु उसविपे विचार स्थित होता है, कामना सर्व नष्ट हो जाती है, अरु राग द्वेप तिसको नहीं रहता, सुखदुःखविषे सम रहता है, ऐसा अमूढ पुरुष अव्ययपदको प्राप्त होता है,जेते गुण तीसरी भूमिका विषे प्राप्त हुए पाते हैं, अरु चित्त नष्ट हो जाता है, तब संसारको नहीं पाता जैसे दीपकसाथ देखिये तो अंधकारको नहीं पाता ॥ इति श्रीयो० निर्वा० चित्तभावप्रतिपादनवर्णनं नाम शताधिकत्रयोवि० सर्गः ॥१२३॥