पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९३

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(१२७४) योगवासिष्ठ । शताधिकचतुर्विंशतितमः सर्गः १२४ पंचमभूमिकावर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी जब तीसरी भूमिका दृढ पूर्ण होती है, अरु दृढ अभ्यासकार चौथी उदय होती है, तब अज्ञान नष्ट हो जाता है, अरु सम्यकूज्ञान चित्तविषे उदय होता है, तब पूर्णमासीके चंद्रमावत् शोभा पाता है, अरु-आदि अंतते रहित निर्विभाग चेतनतत्त्वविषे योगीका चित्त स्थित होता है, अरु सवैको सस देखता है, जिस योगीको चतुर्थ भूमिका प्राप्त होती है, तिसके नानाप्रकार भेदभाव निवृत्त हो जाते हैं, अरु अभेद सर्व आत्मभाव उदय होता है, जगत् तिसको स्वप्नकी नाई भासता है, अरु इंद्रियों का व्यवहार स्वप्नवत् हो जाता है, जैसे अर्ध सुषुप्ति जिसको होती है, तितकालविषे खाना पीना रसते रहित हो जाता है, तैसे चतुर्थ भूमिकावालेका व्यवहार रसते रहित होता है, जैसे सूर्य अपने प्रकाशकार प्रकाशता है, तैसे तिसको आत्माका प्रकाश उदय होता है, अरु सर्व कल्पना तिसकी नाश हो जाती हैं, न किसी पदार्थविषे राग रहता है, न किसीविषे द्वेष रहता है, संसारसमुद्रविषे डुबावनेवाले राग अरु द्वेष हैं, इष्ट पदार्थविषे राग होती है अनिष्टविषे द्वेष होता है, सो रागद्वेष दोनोंका तिसको अभाव हो जाता है, ताते सँसारसमुद्रविषे गोते नहीं खाता, तिसके चित्तको कोङ मोहित नहीं कर सकता ॥ हे रामजी ! जबलग तृतीय भूमिका होती है, तबलग उसको जाग्रत् अवस्था होती है, चतुर्थ भूमिका प्राप्त भई, तब जगत् स्वप्नवत् हो जाता है, सर्व जगत्को क्षणभंगुर नाशवंत देखता है, द्रष्टा दर्शन दृश्य भावनाका अभाव हो जाता है । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जाग्रत् स्वप्न सुषुप्तिका लक्षण सुझको ज्योंका त्यों कहौ, तुरीया अरु तुरीयातीत भी कहौ, बड़े जो हैं, सो शिष्यको कहनेते खेदवान् नहीं होते ।। वसिष्ठ उवाच ॥हे रामजी 1 जो तत्त्वका विस्मरण है, अरु पदार्थकी भावना है, नाशवंत पदार्थको सत्की नाईं जानना सो जाग्रत है, जो पदार्थविषे भावअभावकी सत्यता