पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९५

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( १२७६) यौगवासिष्ठ । भासता ।। हे रामजी ! अर्हता रूपी तिलते संसाररूपी तेल उपजता है, अरु अहंतारूपी फूलते संसाररूपी गंध उपजती है, संसारका कारण अर्हता है, सो अहंता जिस पुरुषकी नष्ट हो जाती है, वह पुरुष इंद्रियोंके इष्टको पायकार हर्षवान् नहीं होता, अरु अनिष्टके प्राप्त हुए द्वेष नहीं करता, ऐसे आपको नहीं जानता, कि मैं खडा हौं, अरु यहाँ बैठा हौं अरु चलता हौं, आपको सर्वदा आकाशरूप जानता है, न अंतर देखता है, न बाहर देखता है, न आकाशको देखता है, न पृथ्वीको देखता है, सर्व ब्रह्मही देवता हैं, तिसको इतर कछु नहीं भासता अरु दुधा दर्शन दृश्य तीनोंका साक्षी रहता है, अहंकारका भी साक्षी, इंद्रियोंका भी साक्षी, अरु विश्वका भी साक्षी है, इनके साथ, स्पर्श कदाचित् नहीं करता, जैसे ब्राह्मण चंडालसाथ स्पर्श नहीं करता अरु जैसे बीजते अंकुर होता है, बहुरि अंकुरते टास होते हैं, इसीप्रकार पदार्थ परिणामी हैं, अरु आकाश तिनविषे ज्योंका त्यों रहता है. काहेते कि उनके साथ स्पर्श नहीं करता, तैसे वह पुरुष द्रष्टा दर्शन दृश्यते अतीत रहता है, जैसे मरुस्थलविषे जल असत् है तैसे उस पुरुषको त्रिपुटी असत्य है, त्रिपुटी अर्हता तिस पुरुषकी नष्ट भई है, ताते भेदबुद्धि भी नहीं रहती, तिसीते शांत है, अरु निर्मल हैं, संसारते सुषुप्त है, अरु चेतन घनताकारकै पूर्ण हैं, सर्वदा शतिरूप है, जिन नैत्रकार संसार जानता है, सो तिनते अंध हुआ है, अर्थ यह जिस नकार फुरणा होता है, तिस मनको नाश किया है, अरु भय क्रोध अहंकार मोह तिस पुरुषविषे दीखते हैं, तो भी उसके हृदयविषे कछु स्पर्श नहीं करते, जैसे पक्षी आकाशविषे आला भी करता है, परंतु आकाशको स्पर्श नहीं कर सकता, तैसे उस पुरुषको विकार कोऊ स्पर्श नहीं करता ॥ हे रामजी तिस पुरुषके संपूर्ण संशय नष्ट हो गये हैं, सर्वदा स्वरूपविषे स्थित है, अरु शतिरूप है, आत्माते इतर किसी सुखकी वांछा नहीं करता, अरु सर्व संकल्प तिसके नष्ट हुए हैं, अरु आत्माते इतर कछु नहीं भासता जाग्रतकी नई दृष्ट आता है, अरु सर्वदा जाग्रतते सुषुप्त है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे पंचमभूमिकावर्णनं नाम शताधिकचतुर्विंशतितमः सर्गः ॥ १२४ ॥