पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

पंष्ठभूमिकोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२७७) शताधिकपंचविंशतितमः सर्गः १२५. | षष्ठभूमिकोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! तीसरी भूमिकापर्यंत जाग्रत् है, अरु चतुर्थ भूमिकाविषे अग्रत् अवस्था स्वप्नवत् देखता है, अरु पंचम भूमिकावाला संसारते सुषुप्त होता है, अरु छठी भूमिकावाला तुरीयापद विषे स्थित होता है, अरु सर्वदा अक्रिय है, किसी क्रियाविषे बंधमान नहीं होता, सर्वकाल आनंदरूप है, अरु भिन्न होकर आनंदको भोगता नहीं, आपही आनंद हैं, केवल अपने आप स्वतः स्थित है, अरु सर्वदा निर्वाण है ॥ हे रामजी ! सर्व क्रियाविर्षे यथाशास्त्र विचरता दृष्ट आता है, परंतु अंतरते शून्य है, उसको किसी साथ -स्पर्श नहीं, जैसे आकाशविषे सर्व पदार्थ भासते हैं, अरु आकाशका स्पर्श किसीसाथ नहीं, तैसेही सर्व क्रिया तिसविषे विद्यमान इष्ट भी आती हैं, तो भी अंतरते किसीसाथ स्पर्श नहीं करता. काहेते कि, जो क्रियाविषे बंधमान करणेहारा अहंकार था, सो तिसका नष्ट हो गया है, केवल शाँतरूप है, अहंका ऊरणा चिन्मात्रविषेत निवृत्त भया है, चिन्मात्रते उत्थान अहंभावका, सोई अज्ञान है,, अरु दुःखदायी है, जब अहंभावनिवृत्त भया, तब कोऊ कर्म स्पर्श नहीं करता, यद्यपि विश्व तिसको दृष्ट भी आता - है, तो भी वास्तवकार नहीं देखता, तिसको सर्व ब्रह्मही भासता है, खाता है, अरु नहीं खाता हैं, देता भी है,अरु कदाचित् नहीं दिया,लेता है, तो भी कदाचित् किसीते कछु नहीं लिया है, चलताहै, परंतु कदाचित् नहीं चला ॥ हे रामजी 1 जेते कछु देश काल वस्तु पदार्थ हैं, तिसको सर्वविषे आत्मभाव होता है, यद्यपि प्रत्यक्ष चेष्टा उसविषे दीखती हैं, तो भी तिसके हृदयविषे कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे खाता पीता लेता देता आपको भासता है,अरु जागेते सर्वका अभाव हो जाता हैं, तैसे जो पुरुष परमार्थ सत्ताविषे जागा है, तिसको गुणकी क्रिया अपनेविषे को नहीं भासती, अरु जो करता है; तिसविषे अभिलाष