पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९७

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(१२७८ ) योगवासिष्ठ । नहीं, तिसकी चेष्टा स्वाभाविक होती है, अपनेनिमित्त कर्तव्य कछुनहीं ऐसे भगवान्ने भी कहा है, अरु सवै आत्माही देखता है, आकाशपृथ्वी सूर्य ब्राह्मण हस्ती श्वान चंडाल आदिक सर्वविषे आत्मभावदेखता है, अरु आकारको भृगतृष्णाकेजलवत देखता है, जो अत्यंत अभाव हैं, अरु दुष्टा, दर्शन दृश्य भी उसको आकाशवत् भासते हैं, अरु निर्मल आकाशवत् शतरूप है, अहंभावते रहित केवल :चिन्मात्रविषे स्थित है, ग्रहण त्यागते अतीत अरु सर्व कलनाते रहित निर्वाणपद है, केवल स्वच्छ निर्मल आकाशरूप स्थित है, अहमम आदिक चिग्रंथि तिसकी भेदी है, चिज कहिये अनात्मविषे अहं अभिमान, सो तिसका नष्ट भया है; केवल शतरूप ही रहता है, जैसे क्षीरसमुद्रते मंदराचल पर्वत निकसा, अरु शतिरूप हुआ, तैसे रागद्वेषरूपी क्षोभ करणेवाले इसके अंतःकरणरूपी पर्वत निकस गया, तब शतिरूप अक्षोभ हुआ, परम शोभाकार शोभता है, जैसे विश्वकर्माने सूर्यका मंडल रचा है, अरु प्रकाशकारकै शोभा पाता है, जैसे ज्ञानरूपी प्रकाशकार प्रकाशता है, जैसे चक्री फिरता फिरता रहि जाता है, अरुशतिको प्राप्त होता है, तैसे अज्ञानकारि फिरता फिरता ठहरा हुआ, तिसकरि सदा शांतिको प्राप्त भया है, अरु अपने आपकार प्रकाशता है, जैसे पवनते रहित दीपक प्रकाशता है, तैसे कलनारूपी पवनतेरहित पुरुष अपने आपकार प्रकाशता है, अरु सर्वदा निर्मल है, एकरस है, जैसे घटके अंतर भी शून्य है, अरु बाहर भी शून्य है; तैसे देहके अंतर बाहर आत्माहै, जैसे जलविष घट राखिये तिसके अंतर बाहर जल होता है, तैसे वह पुरुष अपने आपकरिअंतर बाहिर पूर्ण होरहा है, अरु एकरस है, द्वैत छलनाको नहीं प्राप्त होता अरु तिस पदको पायकार आनंदमान है, जैसे को मारणेके निमित्त पकडा हुआ तिसकी रक्षा होवै, तो बड़े आनंदको प्राप्त होता है, जैसे वह पुरुष आनंदको प्राप्त हुआ हैं, जैसे कोऊ आधि व्याधिते छूटा आनंदको प्राप्त होता है, तैसे वह ज्ञानवान् आनंको प्राप्त हुआ है, जैसे कोऊ पॅढेकार थका हुआ शय्यापर आय विश्राम करे, अरु आनंदको प्राप्त होता है, तैसे, ज्ञानवान्को आनंद है, जैसे व्याधिते छूट कोऊ पैढेकार ज्ञानवान्को