पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९८

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षष्ठभूमिकोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६: (१२७९ ) पूर्णमासीका चंद्रमा अमृतकर आनंदवान होता है, जैसे वह पुरुष अपने आनंदकरि चुरम है, जैसे काधके जलेते स्वच्छ अग्नि धुएँते रहित प्रकाशती है,तैसे ज्ञानवान् अज्ञानरूपी धुएँते रहित शोभता है । हे रामजी। जब संसारकी ओर देखता है, तब अग्निकरि जलता हुआ आपते जुदा देखता है, ज्ञानरूपी पर्वतऊपर स्थित होकर जलता देखता है ।। हे रामजी ! यह जो कहा है, संसारको जलता देखता है, सो ऐसे भी नहीं फुरता कि, मैं ज्ञानी हौं,यहसंसार है,स्वरूपकी अपेक्षाकार यह कहा है, जो संसार उसको दुखःदायी भासताहै, आनंदते रहित वह परमानंदको प्राप्त भया है; बहुर कैसा है, जो सत् असदते रहित अपना आप है, तिसविषे स्थित है, जैसे पर्वत अंतर बाहर अपने आपविषे स्थित है,अरु एकरस है, तैसे वह पुरुष एकरस है, अरु संसारविषे जाग्रत होकर चेष्टा करता है, अरु अंतर संसारकी भावनाते रहित है, अरु तिस पदको वाणीकी गम नहीं, परंतु कछु कहता हौं, श्रवण कर, कई ब्रह्म कहते हैं, कई चेतन कहते हैं, आत्मा कहते हैं, साक्षी कहते हैं, अरु कालवाले उसीको काल कहते हैं, ईश्वरवादी ईश्वर कहते हैं, सांख्यवाले प्रकृति कहते हैं, इत्यादिक जो संज्ञा हैं, सो सर्व उसीके नाम हैं, तिसते इतर नहीं, तिस पदको संतजन जानते हैं ॥ हे रामजी । ऐसे पदको पायके अपने आपकार शोभता हैं, जैसे मणिके अंतर बाहर प्रकाश होता है, तैसे वह पुरुष अंतर बाहर शोभता है, अपने स्वरूपकार सदा घुरम रहता है, जो पुरुष छठी भूमिकाविषे स्थित है, तिसके यह लक्षण होते हैं, संसारते सुषुप्त हो जाता है, अरु स्वरूपविषे चेतन होताहै, जीवत्वभाव तिसका चलता रहता है; जीवत्व कहिये परिच्छिन्नता, जैसे घटकी उपाधिकार घटाकाश परिच्छिन्न भासताहै, जब घट भग्न हुआ, तब घटाकाश महाकाश एक हो जाता है, तैसे अहंकाररूपी घटके भग्न हुए आत्माही भासता है । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे षष्ठभूमिकोपदेशवर्णनं नाम शताधिकपंचविंशतितमः सर्गः ॥ १२८॥