पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९२१)
जीवन्मुक्तिनिश्चयवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

सिद्ध नहीं होते, जैसे तरंग फेन बुद्बुदे जलरूप हैं, तैसे देहकलना इंद्रियां इच्छा देवतादिक सब ब्रह्मरूप हैं; तैसे स्वर्णते भिन्न भूषण नहीं होता, स्वर्णही भूषणरूप होता है, तैसे ब्रह्मते व्यतिरेक जगत् नहीं होता, ब्राही जगत‍्‍रूप है, जो मूढ हैं, तिनको द्वैतकलना भासती है॥ हे रामजी! मन बुद्धि अहंकार तन्मात्र इंद्रियां सब ब्रह्महीके नाम हैं, अपर सुख दुःख कछु नहीं, अहं ऐसा जो शब्द है, तिसविषे भिन्न भिन्न भावना करनी सो व्यर्थ है, अपना अनुभवही अन्यकी नाई हो भासता है, जैसे पहाड़विषे शब्द करता है, तिसकरि प्रतिशब्दका भास होता है, सो अपनाही शब्द है, तिसविषे अपरकी कल्पना मिथ्या है, जैसे स्वप्नविषे अपना शिर काटा देखता है, सो व्यर्थ है, सोई भासि आता है, जिसको असम्यक‍ज्ञान होता है, तिसको ऐसे है॥ हे रामजी! ब्रह्म सर्वशक्त है, तिसविषे जैसी भावना होती है, सोई भासि आती है, जिसको सम्यक‍्ज्ञान होता है, सो निरहंकार स्वप्रकाश सर्वशक्त देखता है, कर्ता कर्म करण संप्रदान अपादान अधिकरण यह जो षट् कारक बुद्धि हैं, सो सब सर्वत्र ब्रह्मही देखताहै,ब्रह्म अर्पण, ब्रह्म हवि, ब्रह्म अग्नि, ब्रह्म होत्र, ब्रह्म हुननेवाला ब्रह्महीफल देता है, ऐसे जाननेवालेका नाम ज्ञानीहै, ऐसे न जानेते अज्ञानी है, जाननेवालेका नाम ब्रह्मवेत्ता है॥ हे रामजी! जब चिरकालका बांधव होवे, अरु उसको देखिये तब जानिये जो बांधव है, अरु जो देखने में न आया, उसका अभ्यास दूर होगया, तब बांधव भी अबांधवकी नाई होजाता है, तैसे अपना आप ब्रह्मस्वरूप है, जब भावना होती है, तब ऐसे भासि आता है, जो मैं ब्रह्म हौं, अरु द्वैत कल्पना भी लीन हो जाती है, सर्व ब्रह्महीभासता है, जैसे जिसने अमृत पान किया है, सो अमृतमय होताहै, अरु जिसने नहीं पान किया सो अमृतमय नहीं होता, तैसे जिसने जाना कि, मैं ब्रह्म हौं, सो ब्रह्मही होता है, जिसने नहीं जाना तिसको नानात्वकल्पना जन्म मरण भासता है, अरु ब्रह्म अप्राप्तकी नाई भासता है॥ हे रामजी! जिसको ब्रह्मभावनाका अभ्यास जागा है, सो अभ्यासके बलकरि शीघ्रही ब्रह्म होता है, ब्रह्मरूपी