पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४००

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संसरणाभावप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. { १२८१) शताधिकसप्तविंशतितमः सर्गः १२७. संसरणाभावप्रतिपादनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह सप्त भूमिका तेरे तांई कही है, जो ज्ञानकी प्राप्ति इनहीकार होती हैं, अन्य साधनाकारि ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ॥ हे रामजी ! पुरुष ज्ञानवान् हुआ तब जानिये, जब तिसकी वृत्ति प्रथम भूमिकाविषे स्थित हुई है, ताते तुम भूमिकाकी ओर चित्तरूप चरण राखौ, तब तुमको स्वरूपकी प्राप्ति होवे । हे रामजी । तीसरी भूमिकापर्यंत सर्व कामना निवृत्त होती हैं, एक आत्मपदुकी कामना रहती है, जब तिस अवस्थाविषे शरीर छूट जावै, तब अपर जन्म पायकार ज्ञानको प्राप्त होता है, अरु जब चतुर्थ भूमिकाविणे प्राप्त हुए शरीर छूटै तब बहुरि जन्म नहीं पाता काहेते कि, आत्मपदुकी प्राप्ति हुई बहुरि कछु पानेकी इच्छा नहीं रहती, जन्मका कारण इच्छा है, जब इच्छा कछु न रही, तब जन्म भी न रहा, जिसको चतुर्थ भूमिका प्राप्त भई है, तिसको स्वरूपकी प्राप्ति भई है, बहुरि इच्छा कैसे होवे, जैसे भुना बीज नहीं उगता, तैसे उसका चित्तज्ञान अग्निकारकै दग्ध हुआ है, जो सत् पदको प्राप्त हुआ है, इसीते जन्म नहीं लेता, अरु मरता भी नहीं, संसारको स्वप्नवत् देखताहै, अरु पंचम भूमिकावाला सुषुप्तकी नाई होता है, अरु छठी भूमिका साक्षीरूप तुरीयापद है, सप्तम तुरीयातीत निर्वाच्यपद है । हे रामजी । मेरे एते कहनेका प्रयोजन यही है, कि, वासनाका त्याग करु, अरु अचिंतपको प्राप्त होडु, सी वासना क्या है, इसका अभिमान होनाही वासना है, जब इसका अभिमान निवृत्त भया, तबही शांति हुई यह, परिच्छिन्न अहंकार रहता नहीं, आत्माके अज्ञानते हुआ है, अरु आत्मज्ञानते लीन हो जाता है । हे रामजी ! संसाररूपी एक नदी है, तिसविषे आधिव्याधि उपाधि रोग तरंग हैं, अरु रागद्वेषरूपी छोटे मत्स्य हैं, अरु तृष्णारूपी बडे मत्स्यहैं, तिसविषे तिसकार जीव दुःख पाते हैं, जैसे जल नीचेको