पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०१

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(१२८३) योगवासिष्ठ । चला जाता है, तैसे मृत्युके सुखमें संसार चला जाता है, अरु अज्ञानरूपी जल है ॥ हे रामजी-1 तृष्णाकारि पुरुष बांधे हैं, ताते तुम तृष्णारूपी संगलको काटौ, हस्तीकी नई वैराग्य अभ्यासरूपी दंतकार तृष्णारूपी जंजीर काटछु । हे रामजी ! यह तृष्णारूपी सर्पिणी है, विषयरूपी फूत्कारेकर विचाररूपी वल्लीको जलाती है, तिसकार जीवरूपी कृषाण दुःख पाता, ताते वैराग्यरूपी अग्निकार सर्पिणीको जलावहु ।। हे रामजी ! तृष्णा दुःखदायी हैं, जबलग तृष्णा है, तबलग संतके वचन इसके हृदयविषे स्थित नहीं होते, जैसे दर्पणके अपर मोती नहीं ठहरता तैसे तृष्णावान्के हृदयविषे संतके वचन. नहीं ठहरते, सो तृष्णाके एते. नाम हैं, तृष्णा, अभिलाषा, इच्छा, ऊरणा, संसारणा इत्यादिक सर्व इसीके नाम हैं, सो इच्छारूपी मेष है, तिसने ज्ञानरूपी सूर्य आच्छादितकिया है, तिसकरि भासता नहीं जब विचाररूपी पवन चलै तब इच्छारूपी मेघ नष्ट होजावे अरु आत्मरूपी सूर्यका साक्षात्कार होवे ॥ हे रामजी ! यह जीव आकाशका पक्षी है, तिसका कर्मविषे इच्छारूपी तागा है, तिसकार उड़ि नहीं सकता, अरु परमात्मपदको प्राप्त नहीं होता, अरु इच्छाहीकार दीन है, जब इच्छा नष्ट होवै, तब आत्मस्वरूप है, ताते इच्छाका नाशकार आत्मणरायण हो, आत्मपरायण कहिये विषयसंसारते वैराग्य अरु आत्मअभ्यास करौ ॥ हे रामजी ! यह जो मैं तेरे तांई भूमिकाक्रम कहा है, जब इसविणे आवै, तब ज्ञानकी प्राप्ति होवै, सो इनको तब प्राप्त होता है, जो एक हस्तिनीको जीतता है, एक वनविषे रहती है, दो उसके पुत्र महामतरूप हैं, वह अनेक जीवको मारिकारे अनर्थको प्राप्त करती है, तिसके जीतेते सर्व जगत् जीता जाता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! ऐसी हस्तिनी मत्तरूप सो कौन है, अरु कहाँ रहती है, कौन उसके देत अरु पुत्र हैं, कैसे वह मारती है, अरु कैसे उसको रचा है, अरु कौन वन है। यह सब मुझको कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी इच्छारूपी हस्तिनी है, शरीररूपी वन है, मनरूपी गुफाविषे रहती हैं, इंद्रियारूपी बालक हैं, संकल्पविकल्परूपी दंतहैं, तिनसाथ छेदती है ॥ हे रामजी ! एक नदी, तिसका प्रवाह सदा चला जाता है, तिसविपे दो मत्स्य रहते हैं, जो नाश