पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०२

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इच्छाचिकित्सोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १२८३) नहीं होते, यह संसरणाही नदी है, अरु राग द्वेष तिसविषे मत्स्य रहते हैं, सो नाश नहीं होते ।। हे रामजी ! मत्स्य तब नाश होवें, जब संसरणरूपी जल नष्ट होवे, तिसके सुकृतदुष्कृतरूपी किनारे हैं, चिंतारूपी ग्राह हैं, कर्मरूपी लहरी हैं, तिनविषे आयाजीवरूपी तृण भटकता है, अरु तृष्णारूपी विषकी वल्लीको नाश करौ ॥ हे रामजी ! तृष्णारूपी अंकुरका बढ़ाना घटाना अपने अधीन है, जो अंकुरको जल देइये तो बढ़ता जाता है अरु जो न देइये तौ जलि जाताहै, सो फुरणेरूपी जल देनेकर तृष्णारूपी अंकुर बढ़ताजाता है, अरु न देनेकार जलि जाता है, स्वरूपके अभ्यासकार ॥ हे रामजी। तृष्णारूपी बड़ा मत्स्य, धैर्य आदिक मांसको भक्षण करनेवाला है, तिसको वैराग्यरूपी कुंडा अरु अभ्यासरूपी देतीकार नाश करौ।। हे रामजी ! इच्छाका नाम बंधन है; निरिच्छाका नाम मुक्ति है ॥ हे रामजी । एक सुगम उपाय कहता हौं; जिसकरि तृष्णा नष्ट हो जावै, सो निज अर्थकी भावना करु, जब निज अर्थकी भावना करोगे, तब शीघ्रही आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी, अरु तेरी जय होवैगी, सर्वते उत्तम पदको प्राप्त होवैगा, अरु वासना तेरी कोऊ न रहेगी, शरीरकी चेष्टा स्वाभाविक होवैगी, अरु संकल्प सर्व नष्ट हो जायँगे। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे संसरणाभावप्रतिपादनवर्णन नाम शताधिकसप्तविंशतितमः सर्गः ॥ १२७ ॥ शताधिकाष्टाविंशतितमः सर्गः १२८ इच्छाचिकित्सोपदेशवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहतेहौ, निज अर्थकी भावना करु, वासना नष्ट हो जावैगी, अरु शीग्रही आत्मपदकी प्राप्ति होगी, सो वासना तौ चिरकालकी चित्तविषे स्थित है, एकही वार कैसे नष्ट होवैगी?अरु तुम कहते हौवासनाके नष्ट हुए जीवन्मुक्त होता है, जिसकी वासना नष्ट हुई तिसका शरीर कैसे रहेगा ? अरु वासना विन चेष्टा