पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०३

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(१२८४) योगवासिष्ठ । क्योंकार होवैगी १ ताते जीवन्मुक्तपद कैसे बनै । वसिष्ठ उवाच ॥ है। रामजी ! मेरे वचन प्रीतिसाथ सुन, कैसे वचन हैं, श्रवणोंके भूषण हैं, जिनके सुननेते दरिद्र न रहूँगा, निज अर्थकेधारणेते संशय नष्ट हो जावेंगे, अरु आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी, सो निज अक्षरके तीन अर्थ हैं, एक तौ अन्यके अर्थ है, जो पांचभौतिक शरीरते तेरा स्वरूप अन्य विलक्षण हैं, अरु दूसरा अर्थ यह जो विरुद्ध है, शरीर जड़ है, तमरूप है, अरु तेरा स्वरूप आदित्यवर्ण, तमते परे है। हे रामजी ! जब तैंने ऐसे धारा कि, मैं आत्मा हौं, अरु यह देहादिक अनात्मा है, तब देहसाथ मिलकर अभिलाषा कैसे रहेगी, अर्थ यह कि, न करेगा, जबलग जाना नहीं, तबलग अभिलाषा है, अरु तीसरा अर्थ निजका यह जो अभाव है, कि न मैं हौं, न कोऊ जगत् है, ऐसे जाना तब इच्छा किसकी रहेंगी अर्थ यह कि न रहेगी, अथवा जो तू आपको देते विलक्षण आत्मा जानैगा तौ भी अविद्यकतमरूप शरीरकी अभिलाषा ना रहेगी, देह तमरूप हैं, तू आदित्यवर्ण है, आदित्यवर्ण कहिये जो तू प्रकाशरूप है, तेरा अरु इसका संयोग कहाँ होवै, जैसे सूर्यके मंडलविषे रात्रि नहीं दीखती, तैसे जब तू आपको प्रकाशरूप जानैगा, तब तमरूप संसार न देखैगा, शरीरकी चेष्टा स्वाभाविक होवैगी, अरु तेरेविषे चेष्टा कछु न होवैगी, जैसे अर्धनिद्रावालेकी चेष्टा होती है, अरु जानती भी नहीं, तैसे चेष्टा होवैगी, अरु बालककी नई तुझको अभिमान न होवैगा, जैसे बालककी उन्मत्त चेष्टा होती है, तैसे तेरी चेष्टा भी स्वाभाविक होवैगी ॥ हे रामजी । जो तू इच्छा करै कि, यह सुख होवै, अरु यह दुःख न होवै, तौ कदाचित् न होवैगा जो कछु शरीरकी प्रारब्ध है सो अवश्य होती है, परंतु ज्ञानवाचुके हृदयते संसारकी सत्यता जाती रहती है, अरु चेष्टा स्वाभाविक होती है, इच्छा नहीं रहती ॥ हे रामजी । जैसे किसी पुरुषको मैजल पेंडा करना होता है, पेंडा बड़ा होवे, अरु पहुँचनेका समय थोड़ा होवै तो वह पुरुष मार्गके स्थान देखता भी जाता है, परंतु बंधमान किसीविषे नहीं होता, तैसेचित्तको आत्मपदविषे लाव कि, किसीप्रकार पहुँचना है, ऐसा शरीर पायकार आत्मपद न पाइये तौ