पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०४

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इच्छाचिकित्सोपदेशवर्णन-निवाणप्रकरण ६. ( १२८५) कब पाना है, जो आत्मपदते विमुख है, सो वृक्षादिक जन्मोंको पावैगा ताते ॥ हे रामजी ! चित्त आत्मपदविषे रख, अरु स्वाभाविक इच्छा विना चेष्टा होवे, इच्छाही दुःखदायक है, जब इच्छा नष्ट हुई, तब इसीको ज्ञानवान् तुरीयापद कहते हैं, जहां जाग्रत् स्वप्न सुषुप्तिका अभाव होवै सो तुरीयापद है । हे रामजी! यह जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति अवस्था जहां न पाइये सो तुरीयापद है, जब संवेदन फुरणा अहंकारका अभाव हो जावे, तब तुरीयापद प्राप्त होवे ॥ हे रासजी ! अहंकारका होना दुःखदायक है, जब इसका नाश हुआ तबहीं आनंद हैं, आत्मपदते इतर जो मायाकी रचना है, तिससाथ मिलकर आपको जानता है; मैं हौं यही अनर्थ है ताते अहंकारका त्याग करौ, जिसको देखिकरि फुरता है, तिसको निज अर्थकी भावनाकार नाश करु, जो आत्मपते इतर भासताहै, सो मिथ्या जानौ, यही निज अक्षरका अर्थ है, जेता कछु संसार भासता है, तिसको स्वप्नमात्र जानौ, सत् जानकार इसविषे इच्छा करनी यही अनर्थ है अरु मिथ्या जानकार इच्छा न करनी यही कल्याण है ॥ हे रामजी । मैं ऊंची बाहुकार पुकारता हौं, मेरे वचन सुनता कोऊ नहीं कि, इच्छाही संसारका कारण है, -अरु इच्छाते रहित होना परम कल्याण है, जब इच्छाते रहित हुआ तब शांतपको प्राप्त होता है, निरिच्छित हुए आत्मा भासता है, जो आनंदरूप है, सम है, अद्वैत है,, तिसविषे जगत्का अभाव है ॥ हे रामजी । मोहका बड़ा माहात्म्य है, हृदयविषे जो आत्मरूपी चिंतामणि स्थित है तिसको मूर्ख विस्मरण कारकै अहेकाररूपी काचको ग्रहण करते हैं । हे रामजी ! तुम निरभिमान होकर चेष्टा करौ जैसे यंत्रीकी पुतलीविषे अभिमान कछु नहीं, अरु चेष्टा तिसकी होती है, तैसे प्रारब्धवेगकार तुम्हारी चेष्टा होवैगी, यह अभिमान तुम न करौ, कि ऐसे होवे, अरु ऐसे न होवे,जब ऐसा होगा, तब शांतपदको प्राप्त होवैगा, जहां वाणीकी गम नहीं, ऐसे आनंदको प्राप्त होवैगा, जबलग इंद्रियोंके अर्थकी तृष्णा है, तबलग जन्ममृत्युके बंधनमें है, ताते पुरुषप्रयत्न यही है, जो तृष्णाका नाश करौ, कर्म के फलकी तृष्णा तेरे ताई न होवे अरु कर्मके करनेविषे भी तेरे ताई इच्छा न होवै, इन