पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०९

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( १२९० ) , योगवासिष्ठ । हे रामजी ! अहंकार दुःखका मूल हैं। इस संवेदनका विस्मरण करना बड़ा कल्याण है, जो कछु अनात्मसाथ मिलकर आपको मानना यही अनर्थ है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जो वस्तु असत्य है, तिसका होना नहीं होता, अरु जो सत्य है, तिसका अभाव नहीं होता, तुम कैसे कहते हौ कि, अहं संवेदनका नाश करौ, एतौ सत् भासती हैं, संवेदन अवेदन कैसे होवे ? वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! तू सत्य कहता है, जो वस्तु असत्य हैं, तिसका होना नहीं, अरु जो सत् हैं, तिसका नाश नहीं होता है । हे रामजी ! यह जो अहंकार दृश्य तुझको भासता है, सो इसका होना कदाचित् नहीं, मिथ्या कल्पित है, जैसे जेवरीविषे सर्प होता है, तैसे आत्माविषे अहंकार है, जैसे सूर्यको किर गोंविषे जलाभास होता है, तैसे आत्माविषे अहंकार शब्दअर्थ फुरता - - है, यह शब्द अरु अर्थ मिथ्या हैं, तिसका लक्षण यह जो मैं हौं सो कल्पित है, आत्मा केवल शुद्धस्वरूप है, तिसविषे अहं त्वका शब्द अर्थ को नहीं, यह अबोधकार भासते हैं, बोधकार लीन हो जाते हैं, अरु वेदनाका जो बोध है, सो अनर्थका कारण है, अबोधतम हैं, जब यह निर्वाण होवे, तब कर्मका बीज मूलते, काटा ॥ हे रामजी जो कमको त्यागिकरि एकांत जाय बैठता है, जो मैं अर्म नहीं करता हौं, ऐसे मानता है सो कहताही है, जो अहंकारसाथ है तौ फलको भोगताही हैं, काहेते जो अहंकारसहित मैं बहुर करौंगा, आत्मज्ञानविना अनात्म साथ मिलकरआपको मानता है, अरु जो पुरुष कर्मइंद्रियोंसाथ चेष्टा करता है, अरु आत्माको लेप नहीं जानता है सो अकतही है, तिसको करणेविषे कछु अर्थ सिद्ध नहीं होते, अकरणेकार भी नहीं होता, ऐसा पुरुष परमनिर्वाणपदको प्राप्त होता है, जिसको वाणीकी गम नहीं ॥ हेरामजी । उसविषे फुरणा कोऊ नहीं, चमत्कार है, चमत्कार कहिए हुआ कछु नहीं अरु भासता है, जैसे बिल्लकी मज्जा होती है, वह बिल्लते इतर कछु वस्तु नहीं, तैसे जगत है, जैसे सोनेते भूषण भिन्न नहीं, तैसे निजशब्दका अर्थ है, सो यह भिन्न भिन्न शब्द अर्थ तबलग भासता है, जबलग अहंवेदनाकार है ॥ हे रामजी ! आत्मपद सदा