पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१०

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अहंकारनाशविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१२९१-) : अपने आपविषे स्थित है, जैसे पत्थार अपनी जडताविषे स्थित है, तैसे आत्मा अपनी चेतनघनताविषे स्थित है तिसको मुनीश्वर चेतनसार कहते हैं, तिस अपने स्वरूपके प्रमादकार दुःख पाता है । हे रामजी। जो पुरुष गृहविषे स्थित है, अरु अहंकारते रहित है, तिसको वनवासी जान, सदा एकांत है, अरु जो वनवासी है, अरु अहंकारसहित है, सो जनोंविषे स्थित है, प्रथम एक गतविषे था, तिसको त्यागिकार दूसरी गर्त में पड़ा है, जो वेषधारी है, अरु वनवास लिया है, तिसको ईश्वर चाहै तौ निकसै, नहीं तो बडे कूपविषे पडा है ।। हे रामजी ! जो पुरुष अध त्याग करता है, एक अंगका त्याग किया अरु दूसरेका अंगीकार किया, ऐसा पुरुष आपको निष्कामी मानता है, तिसको वह त्यागरूपी पिशाचिनी भोगती है ॥ हे रामजी ! निष्कर्म यह तबहीं होता है, जब इसकी अहंवेदना नष्ट होती है, अन्यथा नहीं होता, ताते कर्मको मूलते उखाडहु, जैसे शुर दंडबल बुटेको मूलते काटता है, तैसे काटहु, अहं वेदनाही मूल है, तिसका मूल काटना है । हे रामजी । पुरुषप्रयत्न इसका नाम है, जो अपने आपका नाश करना, अरु आपही रहना, देहसाथ मिला हुआ आपको जानता है, तिसका नाश करना, अरु शिवपदको प्राप्त होना, जो सर्वदा सस्वरूप है, अरु अद्वैत है, तिसविर्षे स्थित होहु, यह विश्व भी तिसका चमत्कार हैं, जैसे बिल्लविषे गरी होती है, तिसके बहुत नाम राखते हैं, सो बिल्लते इतर कछु नहीं, तैसे संसार आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे स्तंभविषे काष्ठते इतर कछु नहीं, तैसे यह संसार है, नानात्व जो भासता है, सो भी चेतनघन आत्माही है, अरु निज अक्षरका अर्थ जो तेरे तांई कहा है, सो भी वही है, विधिनिषेध किसका करिये, सर्व परमात्मा तत्त्व है, दूसरा किंचित् मात्र भी नहीं ॥ हे रामजी 1 ऐसे आत्माको जानकारि सुखेन विचरो, स्वाभाविक चेष्टा होवैगी, जैसे अर्धनिद्रितकी होतीहै, अरु जैसे बालक पिंचुडेविषे होता है, अंग उसके स्वाभाविक हलते हैं, तैसे तुम्हारी चेष्टा होवैगी, अपना अभिमान तुम न करौ ।। हे रामजी 1 जेते कछु भाव अभाव पदार्थ भिन्न भिन्न भासते हैं, सो आत्माके साक्षात्कार