पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४११

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(१२९२) योगवासिष्ठ । हुएते परमात्मतत्त्वही भासँगै, जब अहंकार उत्थान निवर्त्त होवैगा ॥ हे रामजी ! एक अपर युक्ति सुन, जिसकरि आत्मज्ञान होवै, यह जो अह अह क्षणक्षणविषे फुरती है, सो जब फुरै तबही तिस क्षणविषे जान कि, मैं नहीं. जब ऐसे दृढ हुआ तब अहंकाररूपी पिशाच नाश हो जावैगा, अरु आत्मतत्त्वका साक्षात्कार होवैगा, जब अहंकार नाश होवै, तब आत्मा भासै, ताते अहंकारके नाशका यत्न करु कि, न मैं हौं, न जगत् है ॥ हे रामजी! ज्ञान इसीका नाम है, जो अ६ मम न रहे, तिसको मुनीश्वर परमब्रह्म कहते हैं, अरु सम्यक् पद कहते हैं, अरु जहाँ अहं मम है, तहां अविद्यारूपी तम खडा हैं ॥ हे रामजी । अज्ञानीके हृदयविषे सर्व पदार्थका भाव स्थित है, देश काल घर नगर मनुष्य पशु पक्षी आदिक त्रिगुण संसार तिसको भासता है, जब इनका अभावहो जावै, तब शांतपदुकीप्राप्ति होवै॥इतिश्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अहंकारनाशविचारो नाम शताधिकत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ १३० ॥ शताधिकेकत्रिंशत्तमः सर्गः १३१, विद्याधरवैराग्यवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी । जिसके मनते मैं मेरेका अभिमान गया है, तिसको शांतिविना सुख नहीं ॥ हे रामजी! प्रथम आप बनता है, तब जगत है, जो आप होता न बनै तौ जगत कहां होवै, इसका होनाही अनर्थका कारण है, जिस पुछपने अहंकारका त्याग किया है, सो सर्वत्थागी भयो, अरु जिसने अहंकारका त्याग नहीं किया तिसने कछु नहीं त्यागा, अरु जिसने क्रियाका त्याग किया है, अरु आपको सर्वत्यागी मानता है, सो मिथ्या है, जैसे वृक्षके टास काटिए तो फिर, उगता हैं, नाश नहीं होता, तैसे क्रियाके त्याग किये त्याग नहीं होता. त्यागने योग्य अहंकार जी नष्ट नहीं होता, तौ क्रिया बहुरि उपजती है, ताते अहंकारका त्याग करै, तब सर्वत्थागी होवै, इसका नाम महात्याग है, तिसको स्वप्नविषे भी संसार न भासेगा, जाग्रतकी क्या