पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१२

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विद्याधरवैराग्यवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१२९.३ ) कहनी है, तिसको संसारका भान कदाचित्र नहीं होता । हे रामजी ! संसारका बीज अहंभाव है, तिसकार स्थावर जंगम जगत् भासता हैं, जब इसका नाश हुआ, तब जगद्धम मिटि जाता है, ताते इसके अभावकी भावना करु, जब तेरे ताई अहंभाव ऊरै, तब तू जान कि, मैं नहीं, जब इसप्रकार अहंका अभाव हुआ, तब पाछे जो शेष रहैगा, सो आत्मपद हैं ॥ हे रामजी ! सब अनर्थका कारण अहंभाव है, तिसीका त्याग करु ॥ हे रामजी ! शस्त्रका प्रहार जीव सह लेता है, अपर व्याधिरोगको सह लेता है, इस अहके त्यागनेविषे क्या कर्थना हैं । हे रामजी । संसारका बीज अहंका सद्भाव है; तिसका नाश करना संसारका मूलसंयुक्त नाश है, ताते तिसके नाशका उपाय करौ, जिसका अहंभाव नष्ट हुआ है, तिसको सब ठौर आकाशरूप है, उसके हृदयविषे संसारकी सत्ता कछु नहीं फुरती, यद्यपि गृहस्थ विषे होवे, तौ प्रपंच यह शून्य वनकी कटवी तिसको थालनी है, अरु जो अहंकार सहित है, वनविषे जाये बैठे, तो भी जनके समूहविचे बैठा है, काहेते कि, तिसका अज्ञान नाश नहीं भया, अरु जिसने मनसहित पद् इंद्रियोंको वश नहीं किया, तिसको मेरी कथाश्रवण का अधिकारनहीं, वह पशु है, अरु जिस पुरुषने मनको जीता है, अथवा जो जीतनेकी इच्छाकरता है दिन दिन प्रति सो पुरुष हैं, अरु जो इंद्रियोंकारि विश्रामी है, काम क्रोध लोभ मोहकार संपन्न है, सो पशु है, महाअंधतमको प्राप्त होता है । हे रामजी ! जो पुरुष ज्ञानवान् हैं, अरु इच्छा कर्मकी तिसविषे दृष्टि आती है, तो भी इच्छा तिसकी अनिच्छाही है, अरु कर्म अकमैहीहै. जैसे भूना दाना बार नहीं उगता अरु आकार तिसका भासता है, तैसे ज्ञानवानकी चेष्टा हुए आती है, सो देखने मात्र है, उसके हृदयविषे कछ नहीं ॥ हे रामजी ! पुरुष कर्मेंद्रियोंसाथ चेष्टा करता है, अरु जगत्की सत्यता हृदयविषे नहीं, तब बंधन कोऊ नहीं होता,अरु जो जगत्को सत्य जानकार थोड़ा कर्म करता है, तो भी पसर जाता है, जैसे थोड़ा अग्नि जागकर बहुत हो जाता है, तैसे थोड़ा कर्म भी। उसको जन्ममरण दुःख देता है, अरु ज्ञानीको नहीं होता, उसकी