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(१९९४). योगवासिष्ठ । प्रारब्ध शेष हैं, सो भी हृदयविषे नहीं मानता, जानता है जो शरीरकी हैं, आत्माकी नहीं, सो भी वेग उतरता जाता है, जैसे कुंभारका चक्र होता है, अरु चरण चलावनेते रह जाता है, तो शनैः शनैः वेग उतरता जाता है, तैसे प्रारब्धवेग उसका उतरता जाता है, बहुर जन्म नहीं होता. काहेते कि, तिसको अहंकाररूपी चरण नहीं लगता, ताते अहंकारका नाश करु, जब अहंकार नाश हुआ तब सर्वके आदि पदको प्राप्त होवैगा, सो परमनिर्वाणपद है, तिसविषे तब बादल होतेहैं, निर्वाण भी निर्वाण हो जाता हैं । हे रामजी | जब वर्षाकाल होता है, जब शरत्काल आता है, तब बादल चलते रहते हैं ॥ हे रामजी ! जबलग अज्ञानरूपी वर्षाकाल है, तबलग अहंकाररूपी वर्षा है, जब विचाररूपी शरत्काल आवैगा, तब अहंकाररूपी मेघ चलते रहेंगे,अरु आत्मरूपी आकाश निर्मल भासैगा ॥ हे रामजी! जैसे मलिन आदर्श होता है, तब मुखका प्रतिबिंब उज्वल नहीं भासतो; जब मैले निवृत्त होवे तब मुखका प्रतिबिंब प्रत्यक्ष भासे, तैसे अहंकाररूपी मैलकर जीव आच्छादित हैं, तिसकार आत्मा नहीं भासता, जब अहंकाररूपी मैल निवृत्त होवै, तब आत्मा ज्योंका त्यों भासै; जैसे समुद्रविषे नानाप्रकारके तरंग उठते हैं, अरु सम्यक्दशीको सब जलमय दृष्टि आते हैं, अरु भूषणविषे स्वर्णही भासता है, तैसे नानाप्रकारके प्रपंच तिस समदर्शीको चेतनघन आत्माही दृष्ट आता है, आत्माते इतर कछु नहीं देखता, अपर ओरते पत्थरकी शिलावत् हो जाता है. काहेते जो अहंकार उसका नष्ट हो गया है, अरु जो अहंकार साथ है, क्रियाका त्याग करता है, अरु त्यागकर आपको सुखी मानता है, सो मूर्ख हैं, जैसे कोऊ लकडी लेकर आकाशको नाश किया चाहै तौ नहीं होता, तैसे क्रियाके त्यागकार दुःख नष्ट नहीं होता, जब संपूर्ण संसार क्रियाका बीज अहंकार नाश होवे, तब अक्रिय आत्मस्वरूपको प्राप्त होता है, जैसे तांबा अपने तांबाभावको त्यागता है, तब स्वर्ण होता है, तैसे जबजीव अपना जीवत्वभाव त्यागै, तब आत्मा होता है, अरु जैसे तेलकी बूंद जलविषे पडती है, अरु पसार जाती है, नानाप्रकारके रंग जलविषे भासते हैं, तैसे ब्रह्मरूपी जलविषे अहंतारूपी तलकी बूंद नानाप्रकारकी