पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१५

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(१२९६ ) योगवासिष्ठ । तन इतिहास मुनीश्वर कहते हैं, सो तु श्रवण करु, मेरा अरु कागभुशुंडका संवाद है। एक समय सुमेरु पर्वतके शिवरपर मैं गया था, तहाँ सुरांड बैठा था,तिससों मैं प्रश्न किया कि, हे अंग! ऐसा भी कोऊ पुरुप है, जिसकी आयुर्बल बडी होवे, अरु ज्ञानते शून्य रहा है, जो उनको देखा होवे तौ कहौ ॥ भुशुण्डिरुवाच ॥ हे भगवन् ! एक विद्याधर देवता होत भया है, तिसका बडा आयुर्बलथा, अरु विद्या बहुत अध्ययन करी थी, सत्कमौंविषे विचरता था, अरु भोग भी तिसने बड़े भोगे थे, अरु सत्कर्मोको करे, परंतु केवल सकाम चतुर्युगपर्यंत सकाम कर्म करता रहा, जप तप नियम आदिक कर्म करत भया, जब चतुर्थ युगका अंत हुआ, तब उसको विचार आनि उपजा, जेते भोग सुखरूप जानकार भोगता था, तिन भोगोंते उसको वैराग्य उपजत भया,तब भोगको त्यागिकरि लोकालोक पर्वतपर गया, तहाँ जायकारि विचारत भया कि, यह संसार असाररूप है, किसी प्रकार इसते छूटौं, वारंवार जन्म है वारंवार मृत्यु है, पदार्थ सत्य कोऊ नहीं, किसका आश्रय करौं, ऐसे विचार कारकै वह विकृत आत्मा पुरुष सुमेरुपर्वतके ऊपर मेरे पास आय भ्राप्त भयो, अरु शिर नीचा कार मेरे ताई दंडवत करै, अरु मैं भी बहुत आदर किया, तब हाथ जोडिकार तिसने कहा ॥ विद्याधर उवाच ॥ हे भगवन् ! एते कालपर्यंत विषयको भोगता रहा हौं, परंतु शांति मेरे ताईं प्राप्त नहीं भई, तिसते मैं हुःखी रहा हौं तुम कृपाकार शांतिका उपाय कहौ । हे भगवन् ! चित्ररथका जो बाग बना हुआ है, तिसविषे सदाशिवजी रहता है, अरु कल्पवृक्ष भी बहुत हैं; तिसविषे मैं चिरकाल रहा हौं, बहुरि विद्याधरके स्वर्गविषे रहा हौं, अरु इंद्रके नंदनवनविषे रहा हौं, अरु स्वर्गकी कंदराविषे रहा हौं, अरु सुंदर अप्सरासाथ स्पर्श किया, अरु विमानपर आरूढ । भगवन् ! इत्यादिक बहुस्थान मैंने देखे हैं, अरु तप । भी बहुत किया है, दान यज्ञ ब्रत भी बहुत किया है, अरु सहस्र वर्ष सुंदररूप देखता रहा हौं, जिनकी सुंदरता कहनेविषे नहीं आती,तौ भी नेत्र को तृप्ति नहीं भई, अरु बहुत सुगंधिकार नासिकाको तृप्ति न भई, अरु रसनाकार भोजन बहुत प्रकारके खाए हैं, तो भी. शांति न भई, तृष्णा