पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१६

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विद्याधरवैराग्यवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२९७) बढती गई, अरु श्रोत्रकार शब्द राग वहुत प्रकार सुने हैं, अरु त्वचाकारि स्पर्श बहुत किये हैं तौ भी शांति न प्राप्त भई ॥ हे भगवन् ! मैं जिस ओर सुख जानिकर प्रवेश करौं, तिसी ओर दुःख प्राप्त होवै, जैसे मृग क्षुधा निवारणेअर्थ घास खाने आता है, अरु राग सुन सूच्छित हो जाता है, अरु वधिक उसको पकड लेता है, तब मृग दुःख पाता है। तैसे मैं सुख जानिकारै विषयको ग्रहण करता था, अरु बड़े दुःखको प्राप्त भया ।। हे भगवन् ! मैं चिरकालतक दिव्य भोग भोगे हैं, पांचों इंद्रिय छठे मनसाहित कछु कहनेविषे नहीं आते, ऐसे शब्द स्पर्श रूप रस गंध भोगे, परंतु मेरे तांई शांति न प्राप्त भई, अरु न इंद्रिय तृप्त भईं, जैसे घृतकर अग्नि तृप्त नहीं होती, तैसे दिन दिन प्रति तृष्णा वृद्ध होती जाती है, अरु अंतर पडी जलाती है, जो पुरुष इन भोगके निमित्त यत्न करता है, जो मैं इनकरि सुखी होऊंगा, सो मूर्ख है, तिसको धिक्कार है, वह समुद्रविषे तरंगका आश्रय करता है, अरु यह सुखरूप तवलग भासते हैं, जवलग इंद्रियाँ अरु विषयका संयोग है, जब इंद्रियोंते विषयका वियोग हुआ, तब महादुःखको प्राप्त होता है. काहेते कि, तृष्णा अंतर रहती है, अरु भोग जाते रहते हैं. जो जो विषय भोगते हैं, सोई दुःखदायक हो जाते हैं । हे भगवन् ! इसकरि मैं बहुत दुःख पाया हैं, यद्यपि इंद्रियां कोमल हैं, तो भी सुमेरुकी नई कठिन हैं, कोमल भासती हैं, परंतु ऐसे हैं, जैसे सर्पिणी कोमल होती है, खङ्गकी धारा कोमल है, स्पर्श किया मर जाता है, बहुरि कैसी है, जैसे बेडी जलविषे पवनकार भ्रमती है, तैसे अज्ञानरूपी नदीविषे पवनरूपी इंद्रियोंने मेरेताई दुःख दिया है। हे भगवन् ! ऐसे भी मैं देखे हैं, जो सारा दिन माँगते रहे हैं, अरु भोजन खानेके निमित्त इकट्ठा नहीं हुआ, अरु एक ऐसे देखे हैं, जो ब्रह्माते आदि काष्ठपर्यंत सब भोगको एक दिनविषे भोगा है, जिसको दिनविषे भोजनमात्र भी प्राप्त नहीं होता, जो सव विषय इंद्रियोंके इष्टरूप भोगता हैं, तिन दोनोंको भस्म होते देखी, भस्म दोनॉकी तुल्य हो जाती हैं, विशेषता कछु नहीं, इंद्रियोंके बंधनविषे वारंवार जन्मते अरु मरते हैं, अज्ञानी शांतिको कदाचित् नहीं प्राप्त