पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१७

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(३२९८) योगवासिष्ठ । होते, अरू जो तुम कहौ तु तौ सुखी दृष्ट आता है, तेरे ताई' क्या दुःख है, तौ हे भगवन् ! यह दुःख देखनेमें नहीं आता, जैसे चक्रवर्ती राजा होवे, अरू शिरपर चमर झुलता है, अरु अंतर अध्यात्मतापकार तपता है, जो अन्नविषे ज्वलन है, तिसकरि जलता है, अरु बाहरते सुखी दृष्ट आता है, जैसे देखनेमात्र मैं सुखी दृष्ट आता हौं, अरु अंतर इंद्रियां मेरे ताई जलाती हैं । हे भगवन् ! ब्रह्माके लोकाविषे मैं - वडे सुखको देखे हैं, परंतु तहां भी दुःखी रहा हौं, काहेते कि, क्षय अरु अतिशय तहां भी रहती है, जिसकारि वह भी जेलते हैं, अरु इन इंद्रियोंका शस्त्रते भी कठिन था है, सो घाव क्या है जो संसारकी विषमता नानाप्रकारकी दिखाती हैं, सर्वदाः राग द्वेष इनविषे रेहता है, तिसकार मैं बहुत जलता रहा हौं, तोते सोई उपाय मेरेताँई हौ, जिसकार मैं शांतिको प्राप्त होऊ, अरु वह कौन सुख है, जिसकरि बहुरि दुःखी न होवै; अरु जिसका नाश नहीं, आदि अंतते रहित है, सो कहो, तिसके पानेविषे कष्ट है। लौ भी मैं यत्न करता है, जो किसीप्रकार प्राप्त होवै ॥ हे सुनीश्वर ! इंद्रियोंने मेरे तांई बडो कष्ट दिया है, यह इंद्रियाँ कैसी हैं, जो गुणरूपी वृक्षको अग्नि हैं, शुभ गुणोंको जलाती हैं, विचार धैर्य संतोष अरु शांति आदिक गुणरूपी वृक्ष के नाश करनेहारी हैं । हे भगवन् इनने मेरे ताई दुःख दिया है, जैसे मृगका बच्चा सिंहके वश पडे, तिसको मर्दन करता है, तैसे इंद्रियाँ मेरे तांई मर्दन किया है । हे भगवन् ! जिस पुरुषले इंद्रियोंको वश किया है, तिसका पूजन सर्व देवता करते हैं, अरु दर्शनकी इच्छा करते हैं, अरु जिसने मनको वश नहीं किया, तिनको दीनकारि जानते हैं, अरु जिस 'पुरुषन इंद्रियोंको वश किया है, सो सुमेरु पर्वतकी नई अपनी गंभीरताविषे स्थित हैं, अरु जिसने इंद्रियां वश नहीं किया, सो तृणकी नई तुच्छ है, अरु जिसको इंद्रियोंके अर्थविषे सदा तृष्णा रहता है, सो पशु है, तिसको मेरा धिकार है । हे मुनीश्वर ! जो वडा महत भी है, अरु इंद्रिय उसके वश नहीं तो वह महानीच है । हे मुनीश्वर ! ने मेरे तांई बड़ा दुःख दिया है। जैसे महाशून्य उजाडविषे पैंदोई तस्कर लूट लेते हैं, तैसे इंद्रियोंने