पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२१

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(१३०२) योगवासिछ । तव संसारभ्रम मिटि जावैगा, आत्मविचार करिके परमपदको प्राप्त होगे, अपना आप परमात्मरूप प्रत्यक्ष भालैगा, ताते अहंताको त्यागिकर अपने स्वरूपविषे स्थित होहु ॥ हे विद्याधर ! यह जो संसाररूपी वृक्ष है सो अहंतारूपी वीजते उपजा है, तिसको जव ज्ञानरूपी अग्निकारि जलाइये, तव फिरि यह जगत् नहीं उपजता, जव इसको विचारकार देखिये, तव अहंत्वको नहीं पाता ॥ हे विद्याधर ! यह अहं त्वं मिथ्या हैं, इनके अभावकी भावना करू, यही उत्तम ज्ञान है ॥ हे साधो ! जव गुरुके वचन सुनिकरि तिनके अनुसार इसने पुरुषार्थ किया, तब यह परम ऊँचे पदक प्राप्त होता है, इसकी जय होती है ॥ हे विद्यारूपी कैदराके धारणेद्वारे चर्वत अरू विद्यारूपी पृथ्वीके धारणहारे! यह संसाररूपी एक आडंबर है, तिसके सुमेरु जैसे कई थंभे हैं, अरु रत्नोंकी पंक्तिसाथ जड़े हुए हैं, अरु वन दिशा पहाड वृक्ष कैदरा वैताल देवता पाताल आकाश इत्यादिक जो ब्रह्मांड है, सो तिसके ऊपर स्थित है, अरु रात्रिंदिन भूतप्राणी अरु इलाके को घर हैं सो चौपडझे वाले हैं, को जैसा कर्म करता है, तिसके अनुसार दुःख सुख भोगता है, सो खेले है, ऐसेही संपूर्ण, प्रपंच क्रियासँयुक्त दिखाई देता है, सो भ्रमकार सिद्ध है, ताते मिथ्या है, जैले स्वप्नी सृष्टि संकल्पकारि भासती है, वैसे यह सृष्टि भी भ्रमकरि भासती है, अज्ञानकारि रची हुई है, आत्माके अज्ञानकारि भासती है, सो आत्म ज्ञानर लीन हो जाती है, तब भी परमात्मतत्त्वही है, अरु जब सृष्टि होगी,तब भी परमात्मतत्त्वही होवैगा,आगे भी वही था अरु जो कुछ प्रपंच तेरे ताई दृष्टि आता है सो शून्य आकाशही है, त्रिगुणमय प्रपंच गुणोंका रचा हुआ है, अपने स्वरूपके प्रमादकारि स्थित भया है, अरु आत्मज्ञानर शून्य हो जावैगा, जब अपंचही शून्य हुआ, तब आत्मा अरु अनात्मा कहना भी न रहैगा, पाछे जो शेष रहैगा सो केवल शुद्ध परमतत्त्व है, सो तेरा अपना आप है, तिसावपे स्थित होहु, अरु दृश्यका त्याग करु, जो है नहीं, न मैं हौं; न जगत् है, जब तू ऐसा होवैगा, तव तेरी जय होवैगी, आत्मपद सवते उत्तम है, जव तू आत्मपदविषे.