पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२२

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चित्तचमत्कारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३०३) स्थित हुआ. तव तू सवते उत्तम हुआ, अरु तेरी जय होवैगी, ताते आत्मपविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे संसारडेवरवर्णनं नाम शताधिकत्रयस्त्रिशत्तमः सर्गः ॥ १३३॥ शताधिकचतुत्रिंशत्तमः सर्गः १३४. चित्तचमत्कारवर्णनम् ।। भुशुण्ड उवाच ॥ हे विद्याधर ! गृह प्रपंच भी आत्माको चमत्कार है, अरु आत्मा शुद्ध चेतन है, जिसविषे जड अरु चेतन स्थित हैं, अरु सवका अधिष्ठान है, सो सत्तामात्र तेरा अपना आप है, अहं त्वं शब्द अर्थते रहित है, अरु आत्मतत्त्वमात्र है, अरु सत्य स्वरूपकी असत्की नाई स्थित है। हे विद्याधर ! तू इस जड अरु चेतनते अवोधमान होहु, जब तू अवोध हुआ तव शांति चिद्धन होवैगा, अझ यह जो जड़ चेतन है, सो दोनों जड़ परमार्थ चेतन आगे इन दोनोंका अंतर रहता है, यद्यपि अदृश्य है, तो भी उनके अंतरही रहता है, जैसे समुद्रके अंतर वडवाग्नि रहती है, अरु इन जड़ चेतना जो कारणरूप है सो वही है, उत्पत्ति भी उसीते होती है, अरु नाश भी वही करता है, जैसे पवनकरिं अग्नि उपजती है, अरु पवनहीकार लीन होती है॥ हे विद्याधर ! जब ऐसे जाना कि, मैं चेतनरूप भी नहीं; अरु जड़ भी नहीं, जब ऐसी भावना हुई, तब पाछे जो रहैगा सो तेरा स्वरूप है, जव तेरे अंतर इन जड़ चेतन दोनोंका स्पर्श हुआ नहीं, तव सर्वके अंतर जो चेतन है वह ब्रह्म तेरे तांई भालैमा; अरु विश्व भी आत्माविषे कछु हुई नहीं, जैसे सूर्यकी किरणोंका चमत्कार जलाभास होता है, तैसे शुद्ध चेतनका चमत्कार विश्व हो भासता है ॥ हे अंथ ! जैसे भीतके ऊपर पुतलियां लिखी होती हैं, सो भीतते इतर कछु वस्तु नहीं, चितेरेने पुतलियां लिखी हैं, तैसे शून्य आकाशविषे चित्तरूपी चितेरेने विश्वरूपी पुतलियां कल्पी है, सो आत्मरूपी भीतते इतर कुछ नहीं, जैसे स्वर्णविषे भूषण कल्पित हैं, सो