पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२३

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( १३०४ ) योगवासिष्ठ । स्वर्णते इतर कछु नहीं, तैसे आत्माविषे अज्ञानी विश्व देखते हैं, सो आत्माते इतर कछु नहीं, सव आत्मस्वरूपकी संज्ञा हैं, जगत्का ब्रह्म आत्मा, आकाश, देश, काल, सर्व उसी तत्त्वकी संज्ञा है, वही शुद्ध चेतन आकाश है, जिसका चमत्कार ऐसे स्थित है, तिसी तत्त्वविषे स्थित हो, यह जगत् ऐसे है, जैसे दूरदृष्टिकरि आकाशविषे वादल हाथीकी शृंड भासते हैं, तैसे यह जगत् है; यह जो अहं त्वंरूप जगत् है सो अबोधकरिकै भासता है, अरु वोधकरिकै लीन हो जाता है, जैसे मरुस्थलविषे सूर्यकी किरणोंकारि जल भासता है, जैसे गंधर्वनगर है। तैसे यह जगत् है, ताते इसका त्याग करहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाण प्रकरणे चित्तचमत्कारवर्णनं नाम शताधिक चतुस्विशत्तमः सर्गः ॥१३॥ शताधिकपंचत्रिंशत्तमः सर्गः १३५. सर्गोपसर्गोपदेशवर्णनम् ।। | भुशुंड उवाच ॥ हे विद्याधर ! यह जगत् स्थावर जंगम सब आत्माते उत्पन्न हुआ है, आत्माहीविषे स्थित है, अरु आत्माही विश्वविषे स्थित है, जैसे स्वप्नकी विश्व स्वप्नवालेविषे स्थित है, इतर कछु नहीं, अरु आत्मा किसीका कारण नहीं, काहेते जो अद्वैत है, जिसविषे दूसरा फुरणा नहीं ॥ हे अंग । जव तू तिस पद पानेकी इच्छा करता है, तब तू ऐसे निश्चय करु कि, न मैं हौं, न यह जगत् है, जब तू ऐसा हुआ तब आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी जो देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, अरु सर्व वही परमात्मतत्त्व स्थित है, अरु जगत्का कत्ती संकल्पही है,काहेते किं, संकल्पकार उत्पन्न होता है, वहुरि संकल्पहीकरि नाश होता है, जैसे पवनकार अग्नि उत्पन्न होती है, अरु पवनहीकरि दीपक निर्वाण होता है तैसे जव संकल्प बहिर्मुख फुरता है, तब संसार उदय हो भासता है, जब संकल्प अंतर्मुख होता है, तब आत्मपद प्राप्त होता है, अरु प्रपंच लय हो जाता है, ताते संसारकी नानाप्रकार संज्ञा ऊरणेकार होती है, स्वरूपावषे कछु नहीं, न सत्य है, न असत्य है, न स्वतः है, न अन्य है, यह