पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सगपसर्गोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३०५} सब कल्पनामात्र है, सत् असत् अरु स्वतः अन्यका अभाव हुआ तहां अहं त्वं कहां पाइये, है नहीं, सो भ्रममात्र है, वालककें यक्षवत् ॥ हे साधो । जहां अहं त्वं नष्ट हो गए, तहां जो सत्ता है, सो परमपद है, अरु जहां जगत् है, तहाँ विचारकरि लीन हो जाता है, अरु वास्तव पूछे तौ ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, नाममात्र दो हैं, जैसे घट अरु कुंभ हैं। परंतु भ्रमकर नानात्व भासता है, जैसे समुद्रविषे आवर्त तरंग उठते हैं, सो जलते इतर कछु नहीं, अरु पवनके संयोगते आकार भासते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् इतर कछु नहीं, परंतु संकल्पके फुरणेकार नानाप्रकारका जगत् भासता है ॥ हे अंग ! यह संकल्पके साथ मिलकर चित्तशक्ति जैसी भावना करता है, तैसा रूप अपना देखता है, स्वरूपते इतर कछु नहीं. परंतु भावनाकरिअपरका अपर देखता है, जैसे शुद्ध मणिके निकट कोऊ रंग राखिये तैसा रूप भासता है, अरु मणिविषे कछु रंग हुआ नहीं, तैसे चित्तशक्तिविषे कछु हुआ नहीं, अरु हुएकी नई स्थित है, ताते अपने स्वरूपकी भावना करु, अरु जड़ चेतनको छोडकर शुद्ध चेतनविषे स्थित होह, जव ऐसे जानिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होवैगा; तव तेरे तांई उत्थानविषे भी विश्व अपना स्वरूप भागा ॥ हे विद्याधर ! यह जगत् भीआत्माते भासता है, जैसे स्थिर समुद्रविषे तरंग फुरते हैं, सो कारणरूप जलविना तौ नहीं, तैसे ब्रह्म कारणरूपविना जगत् नहीं, परंतु कैसे है, ब्रह्मसत्ता जो अकर्तारूप है, अद्वैत है, अच्युत है, इसीते कहा है जो अकर्ता है, अरु जगत् अकारणरूप है, जो जगत् अकारणरूप है तौ न उपजता है, न नाश होता है, मरुस्थलके जलवत् है, इसीते कहा है कि, जगत् कछु वस्तु नहीं, केवल अज अच्युत शांतरूप आत्मतत्त्वही अखंडित स्थित है, शिलाकोशवत् अचेत चिन्मात्र है, जिसको चिन्मात्रकी अंतरभावना नहीं, तिस मूर्खसे हमारा क्या है ॥ हे साधो ! परमार्थते कछु वना नहीं, अरु जहाँ जहाँ यह मन है, तहां ३ अनेक जगत् हैं, तृण सुमेरु आदिक जो है, तिन सर्वविषे जगत है, जो विचारकारि देखिये तो वहीरूप है, अपर कछु नहीं, जैसे स्वर्णके जानेते