पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२६

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यथाभूतार्थभावरूपयोगोपदेशणन–निर्वाणप्रकरण ६. (१३०७) जगत्को अपने पुरुषार्थकार गोपदकी नाई लंधि जाता है, अरु जो अज्ञानी हैं, तिनको अल्प भी समुद्रसमान हो जाता है, ताते आत्मपद पानेका यत्न करौ, जिसके जाननेते संसारसमुद्र तुच्छ हो जावै, सो आत्मतत्त्व कैसा है, जो सर्वांविषे अनुस्यूत व्यापा है, अरु सर्वते अतीत है, बहुरि कैसा है, जिसके जानेते अंतर शीतल हो जाता है, सब ताप नष्ट हो जाते हैं ॥ हे साधो ! फिरि तिसका त्याग करना अविद्या है, अरु वड़ी मूर्खता है ॥ हे साधो ! यह पदार्थजात सव ब्रह्मस्वरूपही है, जो ब्रह्मस्वरूप हुए तौ, मन अहंकार आदिक कलंक कैसाः सव वही है, किसीकरि किसीको कछु दुःख सुख नहीं ॥ हे विद्याधर ! जव आत्मपदको जाना, तव अंतःकरण भी ब्रह्मस्वरूप भासँगे, जो संकल्पकारि भिन्न भिन्न जानते हैं, सो संकल्पके होते भी ब्रह्मस्वरूप भालेंगे, ताते निःसंकल्प होकर स्थित होहु कि, न मैं हौं, न यह जगत् है, न इदं है, इन शब्दों अरु अर्थीले राहत होकरि स्थित हो, जो संशय सब मिटि जावै ॥ हे विद्याधर ! जब तू ऐसे निरहंकार होवैगा, अरु निःसंकल्प होवैगा तव उत्थानकालविषे भी सर्व आत्मा भालैगा, बुद्धि बोध लज्जा लक्ष्मी स्मृति यश कीर्ति इत्यादिक जो शुभ अशुभ अवस्था है, सो सर्व आत्मशुद्धि रहेगी, इनके प्राप्त हुए भी केवल परमार्थसत्ताते इतर न भासैगा, जैसे अंधकारविषे सर्पके पैरका खोज नहीं भासता. काहेते कि है नहीं, तैसे तेरे तांई सर्व अवस्था न भासैगी, सर्व आत्माही भासैगा, जेते कछु भावरूप पदार्थ स्थित हैं, सो अभाव हो जायेंगे ॥ हे अंङ्ग ! जिस पुरुबने विचारकरि आत्मपद् पानेका यत्न किया है, सो पावैगा, अरु जिसने कहा कि, मैं मुक्त हो रहूँगा, मेरे ताई दया करेंगे, जिस पुरुषने कदाचित् नहीं मुक्त होना, आत्मस्वरूपविषे स्थित होनेको घुरुघप्रयत्नविना कदाचित् सुक्त न होवैगा, आत्मस्वरूपविषे न कोऊ दुःख है, न किसी गुणसाथ मिला हुआ सुख है, केवल शतिरूप है, किसीकर किसीको कछु सुख दुःख नहीं, न सुख है, न दुःख है, न कोऊ कर्ता है, न भोक्ता है, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे यथाभूतार्थभावरूपयोगोपदेशवर्णनं नाम शताधिकषत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ १३६॥