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इंद्रोपाख्यानेत्रसरेणुजगत्वर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३०९) भिन्न कछु नहीं, शून्यरूप है, शीश, भुजा, नेत्र, चरण आदिक नानाप्रकार भिन्न भिन्न भासते हैं, परंतु सव शून्यरूप केलेके पत्रोंकी नई भासते हैं, सव असाररूप हैं ॥ हे विद्याधर ! चित्तविषे रागरूपी मलिनता है, जब वैराग्यरूपी झाडूकरि झाडिये, तव इसका चित्त निर्मल होवै, जैसे कंधेके ऊपर चित्र लिखे होते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, देवता मनुष्य नाग दैत्य आदिक सव जगत् संकल्परूपी चितेरेने सूर्ती लिखी हैं, स्वरूपके विचारकरि निवृत्त हो जाती हैं, जब नेहरूप संकल्प फुरता है, तव भावअभावरूप जगत् विस्तारको पाता है, जैसे जलविषे तेलकी बूंद विस्तारको पाती है, जैसे वसते अग्नि निकासकारि वाँसको दग्ध करती है, तैसे स्नेह इसते उपजीकार उसीको खाते हैं, आत्माविषेजो देश काल पदार्थ भासते हैं, यही अविद्या है। पुरुषार्थकरि इसका अभाव करौ, दो भाग साधुसंग अरु कथाश्रवणविर्ष व्यतीत करौ, तृतीय भाग शास्त्रका विचार करौ, चतुर्थ भाग आत्मज्ञानका आपही अभ्यास करौ, इस उपायकार अविद्या नष्ट हो जावेगी, अरु अशब्द अरूप पदकी प्राप्ति होगी। विद्याधर उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! चार भाग जो उपायकार अशब्द पद प्राप्त होता है, सो सब काल क्या हैं, नाम अर्थक अभाव हुए शेष क्या रहता है? भुशुण्ड उवाच ।। हे विद्याघर ! संसारसमुद्के तरणेको ज्ञानवान्का संग करना, जो विकृत निर्वैर पुरुष है, तिनकी भलीप्रकार टहल करनी, तिसकार अर्धभाग अविद्याका नष्ट होवैगा, उनकी संगति करिकै अरु तीसरा भाग मनन करिकै चतुर्थ भाग अभ्यास करिकै नष्ट होवैगा, अरु जो यह उपाय न करिसकै तौ यह युक्तिकर जिसविषे चित्त अभिलाष कारकै असक्त होवै, तिसीका त्याग करु, एक भाग आविद्या, इसप्रकार नष्ट होवैगी, तीन भाग शनैः शनैः करि नष्ट होवैगी; साधुसंग अरु सच्छास्त्रविचार अरु अपना यत्न होवै, तब एकही वार अविद्या नष्ट हो जावेगी, यह समकाल काहिये, अरु एक एकके सेवेते एकएक भाग निवर्त होता है, पाछे जो शेष रहता है, तिसविषे नाम अर्थ सव असतरूप है, अजर