पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२९

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(१३१०) योगवासिष्ठ । अनंत एकरूप है; संकल्पके उपजेते पदार्थ भासते हैं, संकल्पके लीन हुए लीन हो जाते हैं । हे विद्याधर । यह जगत् संकल्पकरि रचा है, जैसे आकाशविषे सूर्य निराधार स्थित होता है, तैसे देशकालकी अपेझाते रहित यह मननमात्र स्थित है, तीनों जगत् मनके ऊरणेकरिकै फुरि आते हैं, मनके लय हुए लय हो जाते हैं, जैसे स्वप्नके पदार्थ जागेते अभाव हो जाते हैं ॥ हे विद्याधरं ! ब्रह्मरूपी वनविषे एक कल्प-, वृक्ष है, तिसकी अनेक शाखा हैं, तिसकी एक शाखासाथ जगरूपी शुरलका फल है, तिसविषे देवता दैत्य मनुष्य पशु आदिक मच्छर हैं, वासनारूपी रसकरि पूर्ण मज्जा पहाड है, पंचभूत मुखद्वारा तिसका खुला, निकसनेका मार्ग है, इत्यादिक सुंदर रचना. बनी है, तिसविषे त्रिलोकीका ईश्वर इंद्र एक होत भया, गुरुके उपदेशकरि तिसका आवरण नष्ट हो गया, वहुरे इंद्र अरु दैत्यका युद्ध होने लगा, इंद्र अपनी सैन्यको ले चला, तब इंद्रकी हीनता भई, इंद्र भागा, दश दिशाविषे भ्रमता रहा, जहाँ जावै तहां दैत्य चले आयें, जैसे पापी परलोकावेषे शोभा नहीं पाता, तैसे इंद्र शिितको न पाया, तब अंतवाहकरूपकारकै सूर्य की प्रसरेणुविषे प्रवेशकारि गया, जैसे कमलविषे सँवरा प्रवेश करे, तैसे प्रवेश किया, वहां युद्धका वृत्तांत इसको विस्मरण हो गया, तव एक मंदिराविषे बैंठा आपको देखत भया, जैसे निद्राकरि स्वप्नसृष्टि भासिं आवै, तहां रत्नमणिसाथ संवित्, नगर देखा तिसविषे प्रवेश करत भया, तहाँ पृथ्वी पहाड नदियां चंद्र सूर्य त्रिलोकी इसको भासने लगी, तिस जगत्का इंद्र आपको देखत 'भया, जो दिव्य भोग ऐश्वर्यकरि संपन्न मैं इंद्र स्थित हौं, सो इंद्र केतक काल उपरांत शरीरको त्यागकै निर्वाण हुआ, जैसे तेलते रहित दीपक निर्वाण होता है, तव कुंदनाम पुत्र उसका इंद्र हुआ, राज्य करने लगा, बहुरि तिसका एक पुत्र भयो, तव कुंद इंद्र शरीरको त्यागिकरि परमपदको प्राप्त हुआ, तिसका पुत्र राज्य करने लगा, बहुरि तिसका पुत्र हुआ, इसीप्रकार सहस्रों पुत्र होकार राज्य करते रहे, उनके कुलविर्षे यह हमारा इंद्र