पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

संकल्पासंकल्पैकतवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३११) राज्य करता है, ताते यह जगत् संकलमात्र है, तिस वरेणुविषे यह सृष्टि है, ताते इस जगत्को संकल्पमात्र जानकार इसकी आस्था त्यागु ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे इंद्रोपाख्याने त्रसरेणुजगववर्णनं नाम शताधिकसप्तत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ १३७ ।। शताधिकाष्टत्रिंशत्तमः सर्गः १३८. संकल्पासंकल्पैकताप्रतिपादनम् । भुशुण्ड उवाच ॥ हे विद्याधर ! बहुरै उनके कुलविपे एक छ हुआ, वड़ा श्रीमान् त्रिलोकीका राज्य करत भया, बहुरि वह निर्वाण हुआ, तिसके पुत्र रहा तिसको बृहस्पतिके वचनकार ज्ञानरूप प्रतिभा उदय भई, तब यह विदितवेद होकरि स्थित भया, अरु यथाप्राप्तविषे इंद्र होकरि राज्य करै दैत्योंको जीते, तव एक कालविषे किसी कार्यके निर्मित्त भीकी तंतुविषे प्रवेश किया तहाँ तिसको नानाप्रकारका जगत् भासने लगा, तहाँ इसको अपनी इंद्रकी प्रतिमा भई, तव इच्छा उपजी कि, मैं ब्रह्मतत्त्वको प्राप्त होऊ दृश्य पदार्थकी नई प्रत्यक्ष देखौं एकांत बैठकर समाधिविषे स्थित हुआ, तिसको अंतर वाहिर ब्रह्मसाक्षात्कार हुआ तिस प्रतिमाके, उदय होनेकर एक निश्चय भया कि, सर्वं ब्रह्मही है, अरु सर्व और पूजने योग्य है, सर्वं पूजते भी इसीको हैं, अरु सर्वं है, अरु सर्व शब्दते रहित है, रूप अंवलोकनते रहित है, अरु-मननते भी रहित हैं, केवल शुद्ध आत्मपद है, अरु सर्व ओरते प्राणपद उसीके हैं, सर्व शीश अरु मुख उसीके हैं, अरु सर्व ओरते तिसीके श्रवण हैं, अरु सर्व ओरते तिसीके नेत्र हैं, अरु सवैको आत्मत्वकारिकै स्थित हो रहा है, सर्व इंद्रियां अरु सर्व विषयको प्रकाशता है, अरु सर्व इंद्रियाते रहित है, अरु असक्त हुआभी सर्वको, धारि रहा है; निर्गुण है, अरु इंद्रियांसाथ मिलकर गुणोंका भोक्ता है, अरु सर्व भूतके अंतर वाहर व्याप-रहा है, अरु सूक्ष्म है, ताते दुर्विज्ञेय है, इंद्रियोंका विषय नहीं, अरु अज्ञानीको ज्ञानकरिके दूर है, अरु ज्ञानीको