पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३१

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(३३१२) योगवासिष्ठ ।। ज्ञानकरिके निकट है, आत्मत्वकरिके अरु अनंत है, सर्वव्यापी है, अरु केवल शतरूप है, जिसविष दूसरा कोऊ नहीं, घट पट कंध गाए आवा बरा नरा सबविषे वही तत्त्व भासता है, पर्वत पृथ्वी चंद्र सूर्य देश काल वस्तु सर्व ब्रह्मही है, ब्रह्मते इतर कछु नहीं ॥ हे विद्याधर ! इसप्रकार ईद्वको ज्ञान हुआ, अरु जीवन्मुक्त अया, जो कछु चेष्टा होवें सो सव करै, परंतु अंतःकरणविषे बंधमान न होवे, जव केता काल बीता, तब इंद्र निर्वाणपदको प्राप्त हुआ, आकाश भी जिसविषे स्थूल है, तिस पदको प्राप्त भया, बहुरि इंद्रका एक पुत्र सो वडा शूरवीर था, तिसने सर्व दैत्योंको जीता, वरि देवताका अरु त्रिलोकीका राज्य करने लगा, तिसको भी ज्ञान उत्पन्न भया, सच्छास्त्र अरु गुरुके वचनकार केता काल वीता तब वहभी निर्वाण हुआ, उसका जो पुत्र रहा, वह राज्य करने लगा इसीप्रकार कई इंद्र हुए अरु तिसविषे राज्य करत भये, अरु नानाप्रकारके व्यवहारको देखते भये, तब तिसके कुलविधे इसका कोऊ पुत्र था, तिसको यह हमारी सृष्टि भासि आई, वह भी ब्रह्मध्यानी होत भया, तब वह आयकार इस त्रिलोकीका राज्य करने लगा, अवलग विश्वका इंद्र वही है ॥ हे विद्याधर । इसप्रकार विश्वकी उत्पत्ति है, सो संकल्पमात्र है, सब मैं तेरे ताई कही है, उसको पहिली त्रसरेणुविषे सृष्टि भासी, बहुरि तिस सृष्टिके एक भीडकी तंतूंविषे उसको भासी, वहुरि तिसविषे कर्म वृत्तांत जो संकल्पमात्र थे, उनको तुरत देखे, अणुविषे अनेक अवस्था देखी ॥ है विद्याधर ! वास्तव कछु हुई नहीं, जैसे आकाशविषे नीलता भासती है,अरु है नहीं, तैसे यह विश्व है, आत्माविषे विश्वका अत्यंत अभाव है, यह विश्व अहंभावते उपजा है, जब अहंभाव फुरता है, तब आगे सृष्टि बनती है, जव 'अहंका अभाव हुआ, तब विश्व कोऊ नहीं, इस विश्वका बीज अहे है, ताते तू ऐसी भावना करु कि, न मैं हौं, न जगत् है, जब ऐसी भावन करी, तब आत्माही शेष रहैगा, जो प्रत्यक्ष ज्ञानरूप अपना आप है। ज्योंका त्यों भागा ॥ हे विद्याधर ! इस मेरे उपदेशको अंगीकार करु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे संकल्पासंकल्पैकताप्रतिपादनं नाम शताधिकअष्टत्रिशत्तमः सर्गः ॥ १३८॥