पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३२

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भुशुण्डिविद्याधरौपाख्यानसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १३१३) शताधिकनवत्रिंशत्तमः सर्गः १३९ भुशुण्डिविद्याधरोपाख्यानसमाप्तिवर्णनम् । भुशुण्डि उवाच ॥ हे विद्याधर । जब अहंका उत्थान होताहै,तब आगे सृष्टि बनी भासतीहै, जब अहंका अभाव हुआ तब विश्व कछु नहीं भासता केवल शुद्ध आत्माही भासता हैं । हे विद्याधर ! इंद्रते कहा जो मैं हौं, उसको सूर्यको किरणोंके अणुविपे ऐसे अहं हुआ, तब उसविषे देखा अरु कष्ट पाया, जब उसको अहं न होता, तब दुःखको न पाता, दुःखरूपी वृक्षका अहंरूपी बीज है, अरु आत्मविचारते अहंका नाश होता है, जब अहंकानाश होता है तब आत्मपदका साक्षात्कार होता हैं, अरु आत्मपके साक्षात्कार हुए परिच्छिन्न अहंका नाश होता हैं । हे विद्याधर ! आत्मरूपी एक पर्वत हैं, तिस ऊपर आकाशरूपी वन है, तिसविषे संसाररूपी वृक्ष लगे हैं, वासनारूपी तिनविषेरसहै, अज्ञानरूपी भूमिते उत्पन्न हुआ है, अरु नदियां समुद्र इसकी नाडी हैं, अरु चंद्रमा तारे इसके फूल हैं, वासनारूपी जलसाथ बढता है, अरु अहंकाररूपी वृक्षका बीज, सुखदुःखरूपी इसके फल हैं, रसविषे अनात्मपद हैं, अरु टास इसका आकाश हैं, अरु जड इसकी पाताल है, तुम इस वृक्षको ज्ञानरूपी अग्निकरि जलाव, अहंरूपी जो वृक्षका बीज है, तिसका नाश करौ ॥ हे विद्याधर ! एक खाई है, तिसके जन्ममरणरूपी दोनों किनारे हैं, अनात्मरूपी तिसविषे जल है, अरु वासनारूपी तिसविर्षे तरंग हैं, अरु विश्वरूपी तिसविषे बुर्दबुदे होते भी हैं, अरु मिटि भी जातेहैं अरु शरीररूपी तिसविषे झागहै, अहंकाररूपी वायुहै,जब वायु हुई तब तरंग बुद्बुदे सब होते हैं, जब वायु मिटि गई, तब केवल स्वच्छ निर्मलही भासता है । हे विद्याधर जो वायु हुई तो जलते इतर कछु न हुआ,अरु जो न हुई तौ भी जलते इतर कछु नहीं, जलही है, तैसे अज्ञानके होते भी अरु निवृत्त हुए भी आत्मपद ज्योंका त्यों है, परंतु सम्यक्दर्शनकारकै आत्मपद भासता है, अरुअज्ञानकारकै जगत् भासता हैं, सो अहंका होनाही अज्ञान