पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३५

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(१३१६) योगवासिष्ठ । नहीं कि, कहां गया, अरु स्वर्ण पाषाण तुझको तुल्य हो जावैगा, अरु शरीररूपी पत्रके ऊपर अहंतारूपी अणु स्थित है, जब बोधरूपी वायु चलेगी, तब न जानियेगा, कि, कहाँ गया, अरु शरीररूपी पत्रके ऊपर अहंतारूपी बर्फका कणका स्थित है, बोधरूपी सूर्यके उदय हुए न जानियेगा कि, कहां गया, बोधविना अहंता नष्ट नहीं होती, भावे चीकडविषे गमन होवै, भावै पडाडविषेजाय रहै; भावै घरहीविषे रहै, भावै आकाशविषे उड़े, भावै जलविषे रहे, भावेस्थलविषे रहै, भावै स्थूल होवै, भावै सूक्ष्म होवै, भावै निराकार होवै, भावै रूपांतरको प्राप्त होवे, भावै भस्म होवै, भावै मृतक हो जावे, भावै दूर हो, अथवा निकट होवै, जहाँ रहैगा, तहाँही अहंता इसके साथ है । हे रामजी ! संसाररूपी वट है, तिसका बीज अर्हता है, तिसते सब शाखा पसरती हैं, सब अनर्थका कारण अहंता है, जबलग अहंता है, तबलग दुःख नहीं मिटता, जब अहंभाव नष्ट होवै, तब परम सिद्धताकी प्राप्ति होगी । हे रामजी ! जो कछु मैं उपदेश किया है, तिसको भलीप्रकार विचारकारे तिसक अभ्यास करु, तब संसाररूपी वृक्षका बीज जलिजावैगा, अरु आत्मप की प्राप्ति होवैगी ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अहंकारासत्ययोगोपदेशवर्णनं नाम शताधिकचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १० ॥ शताधिकैकचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४१, विराटात्मवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! संसार संकल्पमात्र सिद्ध है, भ्रमकारकै उदय हुआ है,आत्मस्वरूपविषे सृष्टि वस्ती हैं,कई लीन होतीहैं, कई उत्पन्न होती हैं, कई उडती हैं, कहूँ जाकर इकट्ठी हो जाती हैं, कहूँ भिन्न भिन्न उडतीहैं, सो मुझको प्रत्यक्षभासती हैं,वह उडती जातीहैं,तुम भी देखौ अरु आकाशरूप हैं, अरु आकाशहीसों मिलती हैं, जैसे केलेका वृक्ष देखनेमात्र सुंदर होता है; अरु तिसविषे लार कछु नहीं होता, तैसे विश्व देखनेमात्र