पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३६

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विराटात्मवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (, १३१७) सुंदर है, अरु आकाशरूप है, बहुरि कैसा है, जैसे जलविखे पहाड़का प्रतिबिंब पडता हैं. अरु हलता भासता है, तैसे यह जगत् है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हौ, प्रत्यक्ष सृष्टि उड़ती सुझको भासती हैं, तू भी देख, यह तो मैं कछु नहीं समुझा क्या कहते हौ १ ॥ वसिष्ठ ‘उवाच ॥ हे रामजी । अनेक सृष्टि उडती हैं, सो श्रवण करु, पाँचभौतिक शरीविषे प्राण स्थित है, अरु प्राणविषे चित्त स्थित है, तिस चित्तविषे अपनी अपनी सृष्टि है, जब यह पुरुष शरीरको त्याग करता है, तब लिंगशरीर जो वासना अरु प्राणवायु है, सो उडते हैं, तिस लिंगेशरीरविषे विश्व है, वह सूक्ष्मदृष्टिकार मुझको भासता है ॥ हे रामजी आकाशकी जो वायु है, जिसका रूप रंग कछु नहीं, वहीं वायु प्राणोंसाथ मिलि मेरे तांई प्रत्यक्ष दिखाई देती है, इसीका नाम जीव है स्वरूपते न कोऊ आता है, न जाता है, परंतु लिंगशरीरके संयोगकार आपको आता जाता देखता है, अरु जन्मता मरता देखता है, अपनी वासनाके अनुसार औत्माविषे विश्व देखता है, अपर बना कछु नहीं, यह वासनामात्र सृष्टि है, जैसी वासना होतीहै, तैसा विश्व भासता है । हे रामजी ! यह पुरुष आत्मस्वरूप है, परंतु लिंगशरीरके मिलनेकार इसका नाम जीव हुआ है, अरु आपको परिच्छिन्न जानता है, वास्तवते ब्रह्मस्वरूप है, देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित सो ब्रह्म है, तिसके प्रमादकर आपको कछु मानते हैं, इसीका नाम लिंगशरीर हैं, जैसे घटाकाश भी महाकाश है, परंतु घटके खप्परकार पारिछिन्न हुआ है, तैसे यह पुरुष भी आत्मस्वरूप है, अहंकारके संयोगकारकै जीव परिछिन्न हुआ है, जैसे घटको एक देशते उठाय देशतिरविषे ले जाय रक्खा तो क्या ले गया, आकाश तौ न कहूं गयाहै, न आया है, खप्परकार आता जाता भासता है, तैसे आत्मा अखंडरूप है, परंतु प्राणचित्तकार चलता भासता है, जब अहंकाररूप चित्त नष्ट होवै, तब अखंडरूप होवे, जबलग अहंकाररूपी खप्पर नहीं फूटता तबलग जगद्धम् दीखता है, अरु वासनाकारकै भटकता फिरता है, वासनाकरि सृष्टि अपने अपने चित्तविषे स्थित है। आपको कुछ मानते हैं, इसका नाम नैसे यह पुरुष