पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३७

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६ १३१८) , । ..योगवासिष्ठ । जब शरीरका त्याग करता हैं, तब आकाशविषे उड़ता है, प्राणवायु उडिकार जो आकाशविषे शून्यरूप वायु है तिसविषे जाय मिलतीहै, तही इसको अपनी वासनाके अनुसार सृष्टि भास आती है, अपनी सृष्टिको लेकर इसप्रकार उड़ते हैं, जैसे वायु गंधको ले जाती है, तैसे यह वासनारूप सृष्टिको ले जाते हैं, सो उड़ते मेरे ताई सूक्ष्म दृष्टिकरिकै भासते हैं ॥ हे रामजी ! स्थूलद्दष्टिकारक लिंगशरीर नहीं भासता सूक्ष्म दृष्टिकर देखता है, जिसे पुरुषको सूक्ष्मदृष्टि लिंगशरीर देखनेकी है, अरु ज्ञानते रहित है, सोङ मेरे मतविषे मूर्ख पशु है ॥ हे रामजी ! जब यह पुरुष वासनाका त्याग करता है, वासना कहिये अहंकार जो मैं हौं, इस होनेका त्याग करता है, तब आगे विश्व नहीं दिखाई देता, केवल निर्विकल्प ब्रह्म भासता है, उसके प्राण नहीं उडते, तहाँही लीन हो जाते हैं, काहेते कि उसका चित्त अचित्त हो जाता है, इसकार नहीं उडते, जबलग अहंकारका संयोग है, तबलग विश्व इसके चित्तविषे स्थित है, जैसे बीजविषे वृक्ष स्थित होता हैं, जैसे तिलोंविषे तेल स्थित होता है, तैसे इसके हृदयविषे विश्व स्थितहैं, जैसे मृत्तिकाविषे बासन बड़े छोटे होवें, जैसे लोहेविषे सुई वङ्ग होवे, जैसे बीजविषे वृक्षभाव चेतन अथवा जड़ होवै ॥ हे रामजी । तैसे यह संकल्पकलनाविषे भेद हैं, स्वरूपते कछु नहीं, तैसे यह जगत् हैं ॥ हे रामजी ! विश्व संकल्पमात्र है; काहेते कि दूसरी अवस्थाविषे नाश होजाता है, यह जाग्रत् जो तुझको भासता है, सब मिथ्या है, जब स्वप्न आया. तब जाग्रत नहीं रहती अरु जाग्रत् आई तब यह स्वप्न नाश हो जाता है, जब मृत्यु आती है, तब सृष्टिका अत्यंत अभाव होजाता हैं, अरु देशकाल पदार्थसहित वासनाके अनुसार अपर सृष्टि भासती है । हे रामजी। यह विश्व कैसा है जैसे स्वप्ननगर होवै, तैसा है, जैसे संकल्पपुर होवे, तैसे यह सब संकल्प उड़ते फिरते हैं, सृष्टि कई परस्पर मिलती हैं, कई नहीं मिलतीं परंतु सब संकल्परूपी भ्रमकारकै अपरका अपर भासता है। जैसे कोङ पुरुष बड़ा होता है, अरु छोटा भासता है, अरु छोटेका बड़ा भासता है, जैसे हस्तीके निकट अपर पशु तुच्छ भासते हैं,